अमन आकाश
श्री गुरूनानक देव खालसा कॉलेज देव नगर करोल-बाग़ से महज 500-700 मीटर की दूरी पर “लिबर्टी सिनेमा” है। हर शुक्रवार को किसी नयी फिल्म का दैत्याकार पोस्टर हमें गाहे-बगाहे अपनी ओर आकर्षित कर ही लेता है। कॉमर्शियल हब और बगल में कॉलेज होने के कारण दर्शक भी अच्छी मात्रा में पहुँचते हैं। टिकट के दाम भी कुछ खास नहीं हैं। कुल मिलाकर सर्वहारा वर्ग के मनोरंजन के लिए यह उपयुक्त सिनेमा हॉल है। खैर, मुझे सिनेमा हॉल का महिमामंडन नहीं करना, सीधे मुद्दे पर आते हैं। कुछ दिनों पहले कबीर खान निर्देशित फिल्म “बजरंगी भाईजान” रिलीज हुई। अभिनेता थे, खानत्रयी के दबंग “सलमान खान”। मैंने भी इस बहुचर्चित फिल्म को देखने की 3 बार असफल कोशिश की। वज़ह थी, टिकट का न मिलना। टिकट खिड़की पर हो रही मारा-मारी के बीच टिकट खरीदने की मुझमें हिम्मत नहीं होती। सलमान खान के प्रति लोगों की दीवानगी को देखकर मैं दंग था। आखिर इस दीवानगी का कारण क्या है? आखिर सलमान खान की फिल्में इतनी क्यूँ चलती है, जो कहानी और अभिनय शून्य होती हैं?मन में कौंधे इस सवाल ने मुझे 12 से 15 साल पीछे जाने को मजबूर किया। किराये पर टीवी, सीडी और बैट्री लाकर श्वेत-श्याम चित्रपट पर रात-रात भर फिल्में देखने का दौर। जब अजय देवगन, सन्नी देयोल, मिथुन चक्रवर्त्ती, गोविंदा हमारे पसंदीदा “हीरो” हुआ करते थे। भारत मध्यवर्ग बहुल देश है और ये अभिनेता मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्त्व करते। अजय देवगन का आँखों के नीचे लहराते बाल, सन्नी देयोल के ढाई किलो के हाथ, मिथुन के बटन खुले शर्ट, गोविंदा का गँवई अंदाज, मध्यवर्गीय दर्शक यानी हम इसमें अपनापन महसूस करते। फिल्म की कहानियाँ भी मध्यवर्ग की चिंताओं से जुड़ी होतीं। प्यार पाने की जद्दोजहद, घर-परिवार के आपसी मसले, पुश्तैनी बदले, सामाजिक कुरीतियाँ कहानियों का प्लॉट अक्सर इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमता। घर-गृहस्थी, रोटी-दाल में पिसता मध्यवर्ग जो काम नहीं कर पाता, उसे परदे पर अपने हीरो द्वारा साकार होते देख मंत्रमुग्ध हो जाता। जो रसिकमिजाजी थे उन्हें गोविंदा भाता, पारिवारिक समस्याओं एवं लोकलाज की डर से असफल प्रेमियों को अजय देवगन पसंद आता, समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर जिनमें गुस्सा था, वो सन्नी देयोल के पुजारी थे। मिथुन तो खैर हाशिए के लोगों के चहेते थे ही। ये सेलिब्रिटी नहीं थे, ये स्टार भी नहीं थे, ये हमारे समाज के “हीरो” थे।
अपनी नायिकाओं से रोमांस करता या गुंडों से “ढिशुम-ढिशुम” की पार्श्वध्वनि के बीच लड़ता हमारा “हीरो” लम्बे समय के लिए हमें अपनी जद में ले लेता। हम भी अजय देवगन की तरह बाल बढ़ाने की नाकामयाब कोशिश करते, किसी से भिड़ते तो मुंह से ही “ढिशुम-ढिशुम” की ध्वनि देनी पड़ती। ग्रामीण परिवेश होने के कारण हालांकि गोविंदा की तरह रोमांस करने की हिम्मत नहीं हुई।
समय के साथ-साथ बाजारवाद ने गाँव-कस्बों में अपने पैर पसारने शुरु किए। मध्यवर्ग सबसे ज्यादा इसकी चपेट में आया। लोग अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को लेकर शहर की तरफ कूच करने लगे। शहर की तरफ कदम बढ़ाते उसे लग रहा था कि वो भी अपने “हीरो” की तरह महज 3 घंटों में सब कुछ पा लेगा। मगर शहर तो ठहरी सुरसा! सबको निगल लिया उसने। गाँव के सीधे-सादे लोग यहाँ आकर अपनी पहचान तक खो गए। मध्यवर्ग कड़ी मेहनत और तमाम भागदौड़ के बाद भी शहर में मध्यवर्ग से ऊपर नहीं उठ पाया। सारी महत्त्वाकांक्षाएं दबी रह गयीं। 8 घंटे की हाड़तोड़ मेहनत और 2 घंटे की थकाऊ यात्रा के बाद जब वह घर पहुंचता है, तब तक उसके सारे सपने दम तोड़ चुके होते हैं।
मध्यवर्ग के इसी सपनों को आजकल सलमान खान परदे पर पूरा कर रहा है, इसलिए वह आज सबका “हीरो” है। भले ही वह अपराधी हो, भले ही उसने संवेदनशील मुद्दे पर आपत्तिजनक टिप्पणी की हो, पर उसने मध्यवर्ग का दिल जीता है और वह अपने खास किस्म के दर्शकवर्ग का “भाईजान” है। देश के बहुसंख्यक समुदाय मध्यवर्ग का इतना प्यार शायद बादशाह खान शाहरुख और मि. परफेक्शनिस्ट आमिर खान को भी नहीं मिलता।
अभिषेक बच्चन, शाहिद कपूर, वरूण धवन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, आदित्य रॉय कपूर जैसे अभिनेता मध्यवर्ग से जुड़ नहीं पाए, इसलिए बड़े-बड़े ट्रेड विशेषज्ञ इनकी फिल्मों की कमाई का अनुमान नहीं लगा पाते। यही काम हम्पटी शर्मा की दुल्हनिया, बॉम्बे वेल्वेट, दिल धड़कने दो, हमारी अधूरी कहानी जैसी फिल्में नहीं कर पाती और बॉक्स ऑफिस पर असफल होती हैं।
(आकाश अमन हिंदी पत्रकारिता तृतीय वर्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं, व्यंग और फीचर लेखन में इनकी खास रूचि है)
मो. नं. : +91 9135151554
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