Tuesday, 15 September 2015

हिंदी की राजनीति

कृष्णा द्विवेदी
हिन्दी, विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है. हिन्दी की खड़ी बोली, भारत की स्वतंत्रता के बाद १४ सितम्बर १९४९, को भारतीय संविधान के अनुसार इस देश की राष्ट्र भाषा के रूप में सर्व सम्मति से स्वीकार कर गई. वह दिन निश्चित ही स्वतंत्र भारत के लिए गौरवपूर्ण दिन था. हिन्दी अपने आप में एक समर्थ भाषा है. प्रकृति से यह उदार ग्रहणशील, सहिष्णु और भारत की राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका है. यह एक बड़ी विडंबना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा और बोला जाता हो, उस भाषा के प्रति घोर उपेक्षा व अवज्ञा का भाव, हमारे राष्ट्रीय हितों की सिद्धि में कहाँ तक सहायक होंगे ?  हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों ? इस देश में भाषा के मसले पर हमेशा विवाद रहा है. भारत एक बहुभाषी देश है. हिन्दी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली तथा समझे जाने वाली भाषा है, इसीलिए वह राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकृत है. लेकिन हिन्दी का प्रयोग न करके, अंग्रेजी का प्रयोग स्वतंत्रता के उपरांत से ही होता रहा है. असली लड़ाई भारत की सभी भाषाओं और अंग्रेजी के बीच है. हिन्दी और दूसरी भाषाओं के बीच नहीं, लेकिन राजनीतिज्ञों द्वारा हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के बीच विवाद दिखाया जाता रहा है. भारतीय भाषाओं का प्रयोग न करके विदेशी भाषा अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है. अंग्रेजी की वजह से सब बातें लोग समझ ही नहीं पाते और अन्दर ही अन्दर बेईमानियाँ चलती रहती है. सभी कार्यवाहियां कुछ राजनीतिज्ञों एवं चालाक लोगों के हाथ में रहती है. सामान्य लोगों को न तो इतनी समझ ही है कि वे इस व्यापार को समझे और न ही दिलचस्पी ही. वहीँ देश के योजना उद्धारक आपस में योजना बनाते रहते है और देश की जनता का शोषण करते रहते है. वातानुकूलित कमरे में बैठे चंद राजनीतिज्ञ तथा देश की जनता में बहुत बड़ी खाई बन गई है. अंग्रेजी ने इस खाईको और बड़ी करने में बड़ी भूमिका अदा की है. यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या इस मुल्क में बिना अंग्रेजी के काम नहीं  चला सकता है. सफेदपोश लोगों का उत्तर है- हिन्दी में सामर्थ कहा है? शब्द कहाँ है?  ऐसी हालत में मेरा मानना है कि विज्ञान, तकनीक, विधि, प्रशासन आदि पुस्तकों के सन्दर्भ में हिन्दी भाषा के क्षमता पर प्रश्न खड़े देने वालों को यह ध्यान देना होगा कि भाषा को बनाया नही जाता बल्कि वह हमें बनाती है. आवश्यकता, अविष्कार की जननी होती है. हिन्दी में हमें नए शब्द गढ़ने पड़ेंगे. भाषा एक कल्पवृक्ष के सामान होती है, उसका दोहन करना होता है. हिन्दी भाषा को प्रत्येक क्षेत्र में उत्तरोत्तर विकसित करना है. लेकिन इस तरफ़ कम ही ध्यान दिया गया है. यहाँ तक की अनुवाद कार्य भी साहित्य से सम्बंधित पुस्तकों का ही होता है. कविता कहानी या उपन्यास ही विदेशी भाषा से हिन्दी में अनुवाद किए जाते है. विज्ञान एवं तकनीक से सम्बंधित पुस्तकों का हिन्दी में अभाव है. मेरा अपना मानना यह है कि इस सम्बन्ध में हम अंग्रेजी को दोष नहीं दे सकते. हमारे हिन्दी के कर्णधारों ने इस सम्बन्ध में विचार ही नहीं किया. वे मात्र आपसी राजनीति में ही उलझे रहे. तो फिर हिन्दी भारत के कोने-कोने से कैसे जुड़ पाती. हिन्दी साहित्यकार मात्र कविता या कहानी लिख कर खुश हो जाता है, विज्ञान या तकनीक की शब्दावली को हिन्दी में कैसे प्रणीत किया जाय, इस सम्बन्ध में उसका ध्यान नहीं जाता.  वह तो मात्र साहित्यअकादमी पुरस्कार, पद्मश्री,विश्वविद्यालयों में बड़े पद पाकर ही खुश हो जाता है.


हिन्दी के सम्बन्ध में एक बात और ख्याल में रखनी जरुरी है कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में अंतर्संबंध नहीं स्थापित हो पाया है. भारतीय भाषओं में तुलनात्मक अध्ययन की शुरुआत नहीं हो पायी है. अगर दो भाषओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो भारतीय भाषाओं का भला हो सकता है. इस सम्बन्धमें डॉ.नगेन्द्र का कथन उचित प्रतीत होता है - 'उदाहरण के लिए मधुरा भक्ति का अध्येता यदि अपनी परिधि को केवल हिन्दी या केवल बंगला तक ही सीमित करले, तो वह सत्य के शोध में असफल रहेगा. उसे अपनी भाषा के अतिरिक्त, अन्यभाषओं  में प्रवाहित मधुराभक्ति की धाराओं में भी अवगाहन करना होगा। गुजराती, उड़िया, असमियाँ, तमिल, तेलगु, कन्नड़ और मलयालम सभी की तो भूमि मधुर रस से आप्लावित है. एक भाषा तक सीमित अध्ययन में निश् चित ही अनेक छिद्र रह जायेंगे." भारतीय भाषाओं के रामायण और महाभारत काव्यों का तुलनात्मक अध्ययन न जाने कितने समस्याओं का निराकरण कर सकता है. सूफी काव्य के मर्म को समझने में फारसी के अतिरिक्त कश्मीरी, सिन्धी, पंजाबी और उर्दू काव्य का अनुशीलन की आवश्यकता है. वर्तमान समय में साहित्यिक शोध प्रणाली का अभाव है, जिसके चलते भारतीय साहित्य का सम्यक अध्ययन नहीं  हो पाता है. मेरी कामना है कि ऐसी शोध प्रणाली यदि प्रणीत हो तो भारतीय चिंतनधारा के साथ रागात्मक चेतना की अखंड एकता का उदघाटन संभव हो सकेगा. वर्तमान समय में हिन्दी की हालत पर एकबात और ध्यान में रखने योग्य है कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में विवाद रहा है. यह विवाद भाषा का न होकर भाषियों का रहा है. कई राज्यों ने हिन्दी का हमेशा से विरोध किया है. भाषा के नाम पर वहां आन्दोलन चले है. सिर्फ़ यही नही महाराष्ट्र, बंगाल आदि राज्यों में हिन्दी भाषियों के साथ मार-पीट की घटनाएं प्रकाश में आती रहती है. चाहे वह महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना द्वारा हिन्दी भाषियो को पीटना हो या असाम में उल्फा द्वारा निर्मम हत्या. रोज-रोज भाषा के नाम नए राज्यों की मांग करना राजनीतिज्ञों को अपनी राजनीति चमकाने के लिए प्रमुख मुद्दा मिल गया है. चाहे वह उत्तर-प्रदेश को तीन भागों में बाटने, तेलंगाना, गोरखालैंड जैसे मुद्दे ही क्यों न हो. इसमे चिंता का विषय यह है कि समाज का प्रबुद्ध वर्ग (बुद्दिजीवी ) भी राजनीतिज्ञों के साथ खड़ा है. वह ख़ुद ही भाषायी विवाद के दायरे से बाहर नही निकल पाता. ये हालत तब और हास्यापद हो जाते है जब साहित्यकार वसुधैव - कुटुम्बकम की बात करते है और भाषा के नाम पर राजनीति करते है और सरकारी महकमों में ऊँचे पद प्राप्त करने में तल्लीन रहते है. मेरी दृष्टि में, भारत में जब तक राज्यों का अस्तित्व रहेगा, तब तक भाषा विवाद भी रहेगा. भारत अभी तक उस अवस्था तक नहीं पहुँच पाया है कि जहाँ उसे संघात्मक सरकार की आवश्यकता पड़े. उसे अभी केंद्रीय सरकार की जरुरत है. राजनीतिज्ञों को अपने ही क्षेत्र से वोट मिलने वाले है, तब वह क्यों न क्षेत्रीयता को बढावा दे, लेकिन संसद में पहुँचने पर उसे राष्ट्रीय एकता की बातें करनी पड़ती है. यह दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती. यही कारण है कि इस मुल्क में किसी भी मुद्दे या प्रश्न पर राष्ट्रीय सहमतीया विचार निर्मित नहीं हो पाता है. अतः हमें हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने या न बनाने के मुद्दे का परित्याग कर देना चाहिए, क्यों कि हम जितना आग्रह करेंगे वह उतनी ही दूर चली जायेगी. भारत एक बहुभाषी देश है, हमें अपनी भाषाओं की उन्नति की तरफ़ ध्यान देनी चाहिए न की अंग्रेजी की. हमें अपने ही भाषा में ज्ञान, विज्ञान तथा तकनीक से सम्बंधित शोध करना चाहिए. जिससे भाषा का विकास होता है, मेरा अपना मानना यह है कि य़दि हम राष्ट्र भाषा के मुद्दे को छोड़कर मात्र अपनी भाषाओं के अंतर्संबंध एवं उन्नति की तरफ़ ध्यान दिया  तो २० बर्षो में हम अपनी राष्ट्र भाषा का विकास कर लेंगे, जो की हिन्दी नहीं होगी बल्कि हिन्दुस्तानी होगी. उस हिन्दुस्तानी भाषा में हिन्दी, बंगला, तमिल, तेलगु, मराठी, असमी सभी के शब्द होंगे, क्योंकि आखिरकार भाषा का विकास होता है. अतः मेरा निवेदन है कि राष्ट्र भाषा के मुद्दे को छोड़कर अपनी भाषा की उन्नति तथा भारतीय भाषाओं के बीच सम्बन्ध की तरफ़ ध्यान देना होगा, तभी हम राष्ट्रभाषा का विकास कर पायेंगे, जो की सारे मुल्क की भाषा होगी.

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