अंकुश मिश्रा
डी.टी.सी. और दिल्ली
दिल्ली की बस सेवा और लोगों की उम्मीदें, दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं, दिल्ली की सड़कों पर यह रंगीन बस न होती तो शायद दिल्ली थम जाती, लोगों की आवाजाही बंद हो जाती. दिल्ली में सबकी प्यारी मेट्रो को देखते हुए लगता है कि जैसे यह रंगीन बसें दिल्ली के किसी काम की नहीं है. लेकिन बस दिल्ली वालों की लाइफलाइन है. रेडियो पर कबीर की आवाज और दिल्ली की सड़कों पर बस को देखते हुए लगता है क़ि आज भी कुछ पुरानी चीज़ें कायम है. मेट्रो और बस में फर्क इतना है क़ि आप मेट्रो में यात्री कहलायेंगे और बस में सवारी, आप वही हैं लेकिन साधन बदल जाने पर सम्बोधन बदल जाता है. कभी-कभी इन बसों की गति को देखते हुए लगता है कि वह मेट्रो की बराबरी करना चाहता है, चाहता तो है, मगर दिल्ली की ट्रैफिक भी तो मशहूर है. कभी-कभी मैं सोचता हूँ, जिस तरह से पूरी दिल्ली में मेट्रो की अलग लाइन है, उसी तरह से इन बसों की भी अलग लाइन होनी चाहिए, ताकि यह भी मेट्रो की तरह ट्रैफिक मुक्त हो. पिछले कुछ सालों में दिल्ली में जो कहानी गढ़ी गयी है वो सिर्फ मेट्रो की है. कभी-कभी मन में ख्याल आता है कि हर रोज 3 लाख यात्रियों को ढोने वाली इन बसों की कोई कहानी क्यों नही है? मेट्रो से जल्दी जागने वाली बस तथा मेट्रो से बाद में सोने वाली डी.टी.सी. की रंगीन बसें दिल्ली की वर्ल्ड क्लास सड़कों पर उम्मीद बन कर दौड़ती है.
बस यह उम्मीद ही है, इस उम्मीद को पूरा करने वाली इन बसों का कोई धन्यवाद नहीं करता. मैंने सुना है इन बसों की 550 रूट हैं, बस का नंबर 26 से शुरू होकर 972 पर खत्म होती है. इसमें 420 नंबर की बस नहीं है. छोटे-छोटे किस्सों से भरी है इन
डी. टी.सी. के बसों की कहानी.
डी.टी.सी. के लिए मेरे दिमाग में एक ही लाइन आ रहा है-
"चलती का नाम बस"
"दिल्ली के उम्मीद का नाम डी.टी.सी."
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