विनीता सामंत
आज सभी सिनेमा शब्द से परिचित होंगे, क्योंकि यह एक ऐसा प्रभावशाली
माध्यम है जो अमीर-गरीब, छोटे बड़े, शिक्षित-अशिक्षित सबको ही समान रूप से
अपनी ओर आकर्षित करता है. सिनेमा का उद्भव लभग 1930 ई. से शुरू हुआ. जब भारत में पहली सवाक फिल्म
'आलमआरा' शुरू हुई. विदेशो में तो कुछ साल पहले ही सिनेमा का आविर्भाव हो
चुका था. सिनेमा का आविष्कार तो विदेशो में हुआ. प्राचीन
समय में रजवाडो मैं राजा के मनोरंजन के लिये नृत्य होता था और खूबसूरत
नृत्यांगनाएं होती थी. समय बदला फिर मूक फ़िल्में आई, आज सिनेमा मनोरंजन का मुख्य आधार बन चूका है. आलमआरा के बाद से तो फिल्मो का दौर ही शुरू हो गया
जो अब तक बिना रुके चल रहा है. हाबड़ा ब्रिज, मदर इंडिया, आस का पंछी जैसी
फ़िल्मो ने के छोटे कलाकारों को बड़ा सितारा बना दिया जैसे राज कपूर, दिलीप
कुमार, देवानंद, राजेश खन्ना आदि. सिनेमा ने सिर्फ अभिनेता ही नहीं अपितु
कितनी ही अभिनेत्रियों को आसमान छूने का मौका दिया. उस समय सिनेमा की राह आसान नहीं मानी जाती थी और खास कर स्त्रियों को तो इस क्षेत्र में जाने नहीं दिया जाता था, परंतु नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी जैसी
अभिनेत्रियों ने सिनेमा में आकर समाज की सोच बदल दिया. धीरे-धीरे सिनेमा लोगो के मनोरंजन का साधन बन गया. जो व्यक्ति
कल्पना में सोच सकता था उससे भी परे सिनेमा ने अपनी फिल्मो में सच कर दिखाया.
समय बदला और रंगीन फिल्में आने लगी.
सिनेमा का अलग संसार है जहां सिर्फ नाम, शोहरत, शान की चकाचौंध है. सिनेमा एक रूप से सही है लेकिन कई स्तिथियों में ये हानिकारक भी है. जितना अधिक हमारा सिनेमा प्रगति कर रहा है उतनी ही फिल्मो में अश्लीलता, गाली-गालौज और हिंसा का प्रचलन बढ़ रहा है. इससे उनकी फ़िल्में तो हिट हो रही है और फ़िल्म बनाने वालो को इससे कोई मतलब भी नहीं है कि इस पिक्चर का जनता और समाज पर कितना बुरा असर पड़ रहा है. अभिनेत्रियां तो अब इतने कम वस्त्रों में नजर आने लगी हैं, जैसे उन्हें कोई फर्क ही ना पड़ता हो. क्यों अपनी इज्जत-आबरू को ये मजाक बना रही हैं. ये क्या हो रहा है. जितना हमारा समाज विकास की ओर अग्रसर हो रहा है उतना ही अपनी परम्पराओं और संस्कृति को भूल रहा है. हमारी फिल्म इंडस्ट्री क्यों नहीं समझ पा रही की मनोरंजन में जरुरी नहीं की हिंसा, अश्लीलता दिखाई जाये, अगर दिखानी ही है तो ऐसी फ़िल्म दिखाई जाये जो सच्चाई पर आधारित और ज्ञानवर्धन से परिपूर्ण हो. छोटे बच्चों और युवओं पर हिंसा और अश्लीलता का इतना पड़ा है की वे हकीकत में अपनी जिंदगी में गलत चीजों का पालन कर रहे है.
अगर देश को सही मार्ग पर लाना है तो फिल्मों में सुधार जरुरी है और समाज की सोच को भी बदलना होगा. जैसे- बजरंगी भाईजान, तारे जमीन पर, माउंटेन मांझी जैसी फ़िल्में बननी चाइये. जिससे हमारा समाज कुछ अच्छा सीख सकता है. हमारे देश मे सिर्फ लड़ाई-झगड़े के ही मुद्दे नहीं होते अपितु छोटे-छोटे ऐसे कई मुद्दे हैं, जिनपर अगर फ़िल्में बने तो समाज पर इसका अच्छा असर होगा और कुछ अच्छा सिखने को मिलेगा.
सिनेमा का अलग संसार है जहां सिर्फ नाम, शोहरत, शान की चकाचौंध है. सिनेमा एक रूप से सही है लेकिन कई स्तिथियों में ये हानिकारक भी है. जितना अधिक हमारा सिनेमा प्रगति कर रहा है उतनी ही फिल्मो में अश्लीलता, गाली-गालौज और हिंसा का प्रचलन बढ़ रहा है. इससे उनकी फ़िल्में तो हिट हो रही है और फ़िल्म बनाने वालो को इससे कोई मतलब भी नहीं है कि इस पिक्चर का जनता और समाज पर कितना बुरा असर पड़ रहा है. अभिनेत्रियां तो अब इतने कम वस्त्रों में नजर आने लगी हैं, जैसे उन्हें कोई फर्क ही ना पड़ता हो. क्यों अपनी इज्जत-आबरू को ये मजाक बना रही हैं. ये क्या हो रहा है. जितना हमारा समाज विकास की ओर अग्रसर हो रहा है उतना ही अपनी परम्पराओं और संस्कृति को भूल रहा है. हमारी फिल्म इंडस्ट्री क्यों नहीं समझ पा रही की मनोरंजन में जरुरी नहीं की हिंसा, अश्लीलता दिखाई जाये, अगर दिखानी ही है तो ऐसी फ़िल्म दिखाई जाये जो सच्चाई पर आधारित और ज्ञानवर्धन से परिपूर्ण हो. छोटे बच्चों और युवओं पर हिंसा और अश्लीलता का इतना पड़ा है की वे हकीकत में अपनी जिंदगी में गलत चीजों का पालन कर रहे है.
अगर देश को सही मार्ग पर लाना है तो फिल्मों में सुधार जरुरी है और समाज की सोच को भी बदलना होगा. जैसे- बजरंगी भाईजान, तारे जमीन पर, माउंटेन मांझी जैसी फ़िल्में बननी चाइये. जिससे हमारा समाज कुछ अच्छा सीख सकता है. हमारे देश मे सिर्फ लड़ाई-झगड़े के ही मुद्दे नहीं होते अपितु छोटे-छोटे ऐसे कई मुद्दे हैं, जिनपर अगर फ़िल्में बने तो समाज पर इसका अच्छा असर होगा और कुछ अच्छा सिखने को मिलेगा.
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