संदीप राय
देश को आजाद हुए 68 होगए हैं. इन विगत 68 वर्षों में हमने शासन की अलग-अलग प्रकृति को देखा है, लेकिन इन सब के बीच
सबसे बड़ा सवाल आज यह है कि विकास के इस चर्चा और प्रयासों के बिच
हकीकत में कहा खड़े हैं हम? हम यह बात जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश
है पर आज ऐसा कहने वाले को लोग हिकारत भरी नजरों से देखते हैं, हकीकत तो यह है कि जो
किसानी अपने आप में एक व्यवस्था हुआ करतीं थी वो आज व्यवस्थाओं की मोहताज़
दिख रही है. दूसरी तरफ दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि कॉरर्पोरेट के
विकास को ही देश के विकास का नया मानक बना दिया गया है. जिस देश में 19 करोड़
लोग बिना खाएँ रात बिताते हों और 25% आबादी गरीबी रेखा से निचे जीवन यापन
करती हो, 65.40 लाख घरों में शौचालय तक न बन पाये हों और हर 3 में से 1
ग्रेजुएट को रोजगार मिलता हो तो ऐसी स्थिति में विकास के वह सारे मानक फ़िके दीखते हैं. हमारे देश में कानून व्यवस्था की ही बात कर ली जाए तो एक लाख की आबादी पर
सिर्फ 129 पुलिस बल का होना व देश में हर 30 मिनट में 1 रेप जैसी शर्मसार
कर देने वाली घटनाओं का घटित होने वाली घटना कानून व्यवस्था के विफल होने के संकेत हैं.
डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटी और वाई-फाई जैसी सुविधाओं की बात करने वाली ये ऐश्वर्य के उन्माद में बैठी इस सरकार का ध्यान देश के उन गरीब, शोषित, दलित, जनजाति और आदिवासी समुदायों की तरफ क्यों नहीं जाता, जो आज भी बुनियादी जरूरतों की मोहताज़ है और विकास की बाट जोह रही है. इन सरकारों का ध्यान उन स्वास्थ्य सुविधाओं पर क्यूँ नहीं जाता, जहाँ एक डॉक्टर पर 1319 लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी है और अस्पतालों का बहुत बड़ा आभाव है. भूमि अधिग्रहण जैसे बिल को किसान हितैषी बताना व 1.5 करोड़ नये मकानों को विकास के लिये जरूरी बताने वाली ये सरकार का ध्यान उन 1.2 करोड़ खाली पड़े मकानों की तरफ क्यूँ नहीं जाता जो गरीब की पहुँच से कोसों दूर है. अपने भाषणों में लोकलुभावने वादे करने वाले ये राजनेताओं को शायद यह नहीं मालूम है कि भाषणों से गरीब का पेट नहीं भरता. आज नए लोकलुभावने सपने दिखाने की जरूरत नहीं बल्कि जरूरत उस समाज को अपने से जोड़ने की है, जिसे हम हाशिए का समाज कहते हैं.
डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटी और वाई-फाई जैसी सुविधाओं की बात करने वाली ये ऐश्वर्य के उन्माद में बैठी इस सरकार का ध्यान देश के उन गरीब, शोषित, दलित, जनजाति और आदिवासी समुदायों की तरफ क्यों नहीं जाता, जो आज भी बुनियादी जरूरतों की मोहताज़ है और विकास की बाट जोह रही है. इन सरकारों का ध्यान उन स्वास्थ्य सुविधाओं पर क्यूँ नहीं जाता, जहाँ एक डॉक्टर पर 1319 लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी है और अस्पतालों का बहुत बड़ा आभाव है. भूमि अधिग्रहण जैसे बिल को किसान हितैषी बताना व 1.5 करोड़ नये मकानों को विकास के लिये जरूरी बताने वाली ये सरकार का ध्यान उन 1.2 करोड़ खाली पड़े मकानों की तरफ क्यूँ नहीं जाता जो गरीब की पहुँच से कोसों दूर है. अपने भाषणों में लोकलुभावने वादे करने वाले ये राजनेताओं को शायद यह नहीं मालूम है कि भाषणों से गरीब का पेट नहीं भरता. आज नए लोकलुभावने सपने दिखाने की जरूरत नहीं बल्कि जरूरत उस समाज को अपने से जोड़ने की है, जिसे हम हाशिए का समाज कहते हैं.
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