Friday, 25 December 2015

प्रतीक्षा : आखिर कब तक

लव कुमार
भारत एक प्रतीक्षा प्रधान देश हैं जहां आज भी हम सामाजिक कुरीतियों जैसे- दहेज, छुआछुत, भ्रूण ह्त्या, महिला शोषण आदि से मुक्त होने की प्रतीक्षा में हैं. स्वतंत्रता के उपरांत भी अगर हम बात करे तो इन्दिरा गांधी जी का गरीबी हटाओ नारा को हम आज तक नहीं भूले हैं तथा आज भी हम प्रतिक्षारत है. इसके लिए चिंता का विषय ये हैं कि बिना परिश्रम किए यह गरीबी खुद ब खुद कैसे हट जाएगी. समृद्धि कोई ओस की बूंद तो नहीं जो सावन के आने से खुद खेतों में टपक जाएगी.                                                          
इंतजार इस देश में एक सत्ता का ऐतिहासिक कड़वा सच बन गया. सरल भाषा में कहा जाए तो हर मुश्किल का प्रतीक्षा अब आदत से लत बन चुकी हैं. गांवों को शौचालय, सड़क, बिजली, शिक्षा आदि की आज भी प्रतिक्षा हैं. वहीँ दूसरी ओर शहरों में स्वच्छ हवा, पीने योग्य पानी तथा रोजगार की प्रतीक्षा आज भी हैं. हर पाँच वर्ष बाद "अच्छे दिन" की उम्मीद लेकर हम वोट देकर नई सरकार बनाते हैं पर सवाल वही रह जाता हैं.  क्या बेरोजगारी घटेगी ? महंगाई आसमान से जमीन पर आएगी ? क्या शिक्षा का स्तर सुधारेगा ? क्या कालाबाजारी तथा भ्रष्टाचार कम होगा?

देश में आज किसी भी बदलाव के लिए आंदोलन तथा विरोध-सघर्ष का सहारा लेना पड़ता है. चाहे बात कानूनी प्रक्रिया में बदलाव की हो या किसी सामाजिक परिवर्तन की, आवश्यकता इस बात की है कि हम शिक्षित के साथ-साथ जागरूक भी हों. जिससे हम अपने अधिकारों और कर्तव्यों की वास्तविक पहचान कर सकें. वरना हम जिस प्रतीक्षा की दासता में सदियों से बंधे हैं उसी में हमेशा के लिए बंधे रह जायेंगे और मूलभुत सुविधाओ के लिए तरसते रहेंगे. 

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