बिपिन बिहारी दुबे
मनुष्य उत्पादन नहीं करता वह परिवर्तन करता है.
नदियों की धाराओं से, परमाणु को तोड़कर बिजली पैदा करता है. इससे होने वाले खतरे की
परवाह किये बगैर. उक्त कथन गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा मणिमाला ने कहा. पाखी महोत्सव नोएडा के इंदिरा गांधी
कला केंद्र में आयोजित हो रहा है. महोत्सव के तीसरे सत्र में "विकास किस कीमत पर" विषय पर परिचर्चा करते हुए
मणिमाला ने विकास को भारत के तीन वर्गों के हिसाब से परिभाषित किया. उन्होनें कहा
कि भारत में तीन वर्ग है विकसित,
विकासशील, और
अविकसित. विकसित लोगों का विकास शेयर बाजार, सूचकांक, जीडीपी आदि में निहित है. विकासशील (जिसमें ज्यादातर मध्य वर्ग
के लोग हैं) लोगों को बिजली,
पानी सड़क सबकुछ बेहिसाब चाहिए.
अविकसित वर्ग जो कि सबसे पिछड़े या अंतिम जन है. जिन्हे अक्सर विकास विरोधी कहा
जाता है. उन्हें अच्छा अस्पताल,
अच्छी शिक्षा व्यवस्था, रोजगार आदि मिल जाये वही काफी है. मणिमाला ने आज के विकास को
समाज में गैरबराबरी पैदा करने वाला कहा. उन्होंने कहा कि इस विकास से समाज में द्वन्द और विरोध पैदा हो रहा है. इससे शांति कभी नहीं मिल सकती है. मणिमाला के साथ इस
परिचर्चा में केंद्रीय मंत्री डॉ महेश शर्मा, उत्तराखंड
कि वित्त मंत्री डॉ इंदिरा हृदयेश, गंगा बचाओ आंदोलन के
स्वामी शिवानंद सरस्वती तथा डॉ आशुतोष कर्नाटक भी शामिल थे. डॉ महेश शर्मा विकास
के सपनों को याद किया. उन्होंने कहा कि पहले हम यह सोचते थे कि विकास होगा तो
सबकुछ ठीक हो जायेगा. आज जब हम विकास के पथ पर आगे बढ़े तो उसके साइड इफेक्ट
नजर
आने लगे. आज हम विकास की सीमा नहीं तय कर पा रहे हैं. उन्होंने कहा कि विकास
सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, तकनीकी हर स्तर पर होना चाहिए. परिचर्चा में उत्तराखंड की वित्त
मंत्री सह औद्योगिक विकास मंत्री डॉ इंदिरा हृदयेश ने भारतीय लोकतंत्र को सर्वाधिक
उदार बताते हुए कहा कि यहा सब के साथ संतुलन बना के चलना पड़ता है. हमारे यहाँ अन्य
देशों की भाँति समय निर्धारित नहीं है. डॉ हृदयेश विकास में नियोजन को सबसे आवश्यक
बताया और कहा कि हमारे यहाँ सड़कें पहले बनती हैं, फिर
उन्हें तोड़कर पानी का पाईप डलता है, फिर एक साल बाद तोड़कर सीवर
डलता है. गंगा बचाओ आंदोलन के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने वर्तमान विकास को विनाश
की तरफ ले जाने वाला बताया. उन्होंने कहा कि विकास का मतलब यह नहीं कि हम उन सभी
वस्तुओं को खो दे जिस पर हम आज तक जीवित है. नदियों के उपर रिसर्च करने वाले
वैज्ञानिकों को सलाह देते हुए उन्होंने कहा कि खोज का मतलब यह नहीं कि आप आए सैम्पल लिया और चलते बने. अगर वासत्व आप नदियों को जानना चाहते हैं तो आपको नदी के
धाराओं को उसमें पल रहे जीव-जंतुओं को सूनना पड़ेगा. नहीं तो
ऐसे तमाम रीसर्च दावे करते रहेंगे और प्रकृति का तहस-नहस होता रहेगा. परिचर्चा में 'गेल' के डॉ आशुतोष कर्नाटक ने प्रजेंटेशन के माध्यम विकास के तकनीकि
पहलुओं से अवगत कराया. इस परिचर्चा का संचालन मीडिया आलोचक व प्राध्यापक भूपेन सिंह ने किया.जिन्होंने समय-समय पर कई जानकारी और आंकड़े प्रस्तुत कर परिचर्चा को सार्थक बनाया.
पाखी महोत्सव के पहले सत्र में उत्तराखंड के लोक कलाओं को प्रस्तुत किया गया. पर्वतीय
लोक कला मंच की टीम ने सबसे पहले मांगलिक वंदना, फिर
नंदा देवी की यात्रा की झाँकी के माध्यम से दर्शकों को भाव-विभोर कर दिया. इसके बाद
लोकनृत्य, लोकगीत आदि की भी प्रस्तुति दी. जिनमें चैत के
भेंटौली, जागर, बौलिया आदि शामिल था. इस
कार्यक्रम का निर्देशन हेम पंत तथा गंगादत्त भट्ट ने किया. महोत्सव के दुसरे सत्र
में ‘हिंदी साहित्य में उत्तराखंड की भूमिका’ विषय पर परिचर्चा हुई. जिसमे इतिहासकार पुष्पेश पंत, साहित्यकार डॉ लक्ष्मण सिंह बटरोही, युवा कथाकार प्रभात
रंजन ने भाग लिया. परिचर्चा में सबसे पहले प्रभात रंजन ने जानेमाने साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी के योगदान के बारे में चर्चा किया. उन्होंने हिंदी साहित्य की परंपराओं के बारे में
बताया और कहा कि यहाँ दो परपराएं कायम है एक प्रसाद की, दूसरी
प्रेमचंद की. मनोहर श्याम जोशी ने इन दोनों के बीच समन्वय बनाने का काम किया.
प्रभात रंजन ने बताया कि जोशी ने सबसे पहले धारवाहिक लेखन की शुरुआत की लेकिन पैसे के लिए उन्होंने कवि की गरिमा को नीचा होने नहीं
दिया. डॉ लक्ष्मण सिंह बटरोही ने महत्वपूर्ण कथाकार शैलेश मटियानी के योगदानों की चर्चा की. डॉ
बटरोही ने शैलेश मटियानी के संघर्षपूर्ण जीवन के बारे में भी बताया. उन्होंने 1964
में युगधर्म में प्रकाशित उनकी कहानी ‘ब्रम्ह्संकल्प’ के उपर भी चर्चा कि. हालांकि अपने अंतिम समय में मटियानी के अपने
हि विचारों से विमुख हो जाने पर प्रश्न भी बटरोही ने खड़ा किया. परिचर्चा में शामिल तीसरे वक्ता पुष्पेश पंत ने कवि, कथाकार रमेश चंद सहाय के
जीवन के उपर प्रकाश डाला. डॉ पंत ने एक अंग्रेजी के शिक्षक होने के बावजूद रमेश
चंद सहाय के हिंदी साहित्य में योगदान को बखूबी सराहा. इस प्रकार सभी वक्ताओं ने हिंदी साहित्य में उत्तराखंड से आने वाले साहित्यकारों के योगदान और भूमिका पर गहन चर्चा किया जो बहुत ही महत्वपूर्ण रहीं.
कार्यक्रम के आख़िरी सत्र में भीष्म साहनी द्वारा लीखित नाटक ‘अमृतसर आ गया’ नाटक का मंचन किया गया. अरविंद गौड़ के निर्देशन
में अस्मिता थिएटर ग्रूप के छात्रों ने अपने प्रस्तुति से दर्शकों मंत्रमुग्ध कर
दिया. अमृत्सागर आ गया के साथ-साथ इस ग्रूप ने भीष्म साहनी के पाँच नाटक ‘ओ हरामजादे’
‘पाली’ ‘माता-विमाता’ ‘निमीत’
और ‘चीफ
की दावत’ नाटक का मंचन किया.
कार्यक्रम की
शुरुआत पाखी महोत्सव के आयोजक और स्व. जे.सी. जोशी के सुपुत्र अपूर्व जोशी ने अपने वक्तव्य में इस आयोजन की महत्ता पर बात करते हुए अपने पिता को याद किया. जिनकी याद में यह आयोजन होता है. जेसी जोशी स्मृति साहित्य सम्मान के विषय में वताया. इस अवसर पर जे.सी. जोशी को पत्नी जय जोशी भी उपस्थित थीं. महोत्सव का औपचारिक शुभारम्भ स्वामी शिवानंद सरस्वती, श्री पुष्पेश पंत, श्री यशपाल, श्री प्रेम भारद्वज ने दीप प्रज्जवलीत कर किया. कार्यक्रम के अंत में हिंदी साहित्य के जानेमाने कवि पंकज सिंह के
निधन पर एक मिनट का शोक व्यक्त व्यक्त कर समापन किया गया.
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