संदीप राय
आजकल बच्चे जल्दी बड़े हो जा रहे हैं, जिसे दुष्कर्म के बारे में पता चला उसे बच्चा कैसे माना जाये. यह बात किशोर न्याय अधिनियम यानी जुवेनाइल जस्टिस बिल को लेकर चल रही बहस के दौरान संसद में सुनने को मिली. वहीँ कुछ का यह मनना था कि एक अपराधी के चलते बाकि बच्चों को सज़ा क्यूँ ? लेकिन इन सब के
बिच सुधार की बातें गौण थी. बड़ा सवाल यह है कि क्या भय को आधार बना पर कानून बनेंगें. कानून में सज़ा के बजाय सुधार को प्रमुखता क्यूँ नहीं दी जा रही ? निर्भया के साथ निर्ममता करने वाला नाबालिक अपराधी के रिहाई की बात के साथ ही तमाम राजनितिक दलों और मीडिया ने विरोध जताया है. आज जुवेनाइल शब्द को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है, बहस का मूल बिंदु है 16 वर्ष या 18 वर्ष. कुछ माननीयों ने तो कहा की किशोरों में अपराध बढ़ रहे हैं इसलिए 16 वर्ष करना ही मुनासिब होगा. किशोर अपराध भारत में ही नहीँ बल्कि पुरे विश्व में ही बढ़े हैं, जिसमें भारत की स्थिति संतोषजनक रही. ये नई बात नहीँ की अपराध को रोकने के लिए कोई कठोर कानून बना हो. न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में नया दुष्कर्म रोधी कानून बनाया गया था. इस कानून से दुष्कर्म में कोई कमी नहीँ आई बल्कि आज स्थिति यह है कि 9 से लेकर 12 साल के बच्चे भी गंभीर अपराध में पकडे जारहे हैं. इस उम्र के बच्चों से कौन सा कानून निपटेगा. आज कल बच्चे अगर जल्दी बड़े हो जा रहे हैं तो मुझे समझ नहीँ आ रहा की इसका वैज्ञानिक आधार क्या है ? क्या बच्चे 10 स 12 साल में ही बड़े हो जा रहे हैं या फिर ये बातें अपने दैनिक अनुभवों के आधार पर ही कहीँ जा रही हैं. बच्चों के लिए पूरी दुनिया में अलग कानून इसीलिए बनाया गया था की उनको सुधार का एक मौक़ा दिया जाना चाहिये अगर बच्चे बड़े अपराधियों के साथ रहेंगें तो और अपराधी बनेंगें तो अगर उनमे सुधार की एक संभावना है तो हम उसे सज़ा क्यूँ नहीँ मानते अगर वह बच्चा 3 साल सज़ा काट कर आता है तो वो भी सज़ा का हिस्सा है .
ऐसे ही एक महिला अवंतिका माकन का पूरा प्रकरण देखें तो उन्होंने अपने पति के हत्यारे जिसका नाम कुकी है उसको यह कहकर रिहा करा दिया की जो उनके और उनके परिवार के साथ हुआ वो किसी और परिवार के साथ न हो . उन्होंने उस अपराधी के घर जाकर उसके माता - पिता के दर्द को महसूस किया और आज इसके
परिणाम स्वरुप कुकी सुखी पारिवारिक जीवन जी रहा है व ब्लॉग लिखकर सामाजिक चेतना जागृत करने के प्रयाश कर रहा है . लेकिन वही दूसरी तरफ निर्भया के मामले में वही हुआ जिसका अंदाज़ा अवंतिका जी ने अपने मामले में लगाया था. निर्भया के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीँ थी इसलिये निर्भया के साथ हुए हादसे के बाद सरकारों ने उसके परिवार पर सहायता की बरसात कर दी वहीँ दूसरी तरफ एक पत्रकार की की रिपोर्ट को आधार बनाया जाय तो उस घटना के नाबालिक अपराधी के घर की हालत इतनी बुरी है की दो बड़ी बहने मजदूरी करती हैं और माता- पिता दोनों को ही बीमारियां हैं व साथ ही साथ सामाजिक बहिष्कार भी है .
इस घटना में सबसे बड़ा सवाल यह है की एक ऐसे परिवार का बच्चा जो दो वक़्त की रोटी नही खा सकता उसने ऐसा अपराध किया ही क्यों ? ये सवाल हमारे कानून व्यवस्था , राजसत्ता व हमारे सुविधाभोगी समाज से भी है . लेकिन मुझे नहीँ मालूम की ये समाज या कानून उस नाबालिक के परिवार को समान नजरिये से देखता है या नहीँ लेकिन भूख सबको समान नजरिये से देखती है . और इन प्रकरणों से सबसे बड़ा सवाल यह उठता है की न्याय का सही तरीका कौन सा है ?
अगर जुवेनाइल जस्टिस बिल की बात की जाय तो जुवेनाइल बोर्ड जो अलग-अलग जिलों में बने हुए हैं. जो अभी अच्छी तरह से काम भी नही कर रहे हैं बहुत जगह बने तक नहीँ है, उनपर यह फैसला छोड़ देना की आप तय कीजिये की किसी बच्चे का अपराध बालिगों के मामले में जाने लायक हैं या नहीँ क्या ये प्रोग्रेसिव कानून है ?
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