Wednesday, 23 March 2016

विकास का झूठ

संदीप कुमार राय
वह उस जमीन से आया था, जिसे बंजर बनाया गया, वह खामोश आकर्षणों की दुनिया से आया था जहाँ कहा कुछ भी नही जाता. वो एक आदिवासी था. जी हाँ अपने देश का आदिवासी, उसे आप छत्तीसगढ़ या उड़ीसा, झारखण्ड या फिर मध्यप्रदेश कहीँ का कह सकते हैं वो एक ही आदिवासी है. उसके मन में कुछ अरमान करवटें लेते हैं, अनबुझी इच्छाएं आती है और चली जाती हैं और वह अपने कस्बाई सपने छतों पर फैले कपडे की तरह धूप उतरते ही बटोर लेता है. उसके कुछ अनकहे धुंधले से अस्क स्मृतियों में उलझे रह जाते हैं, जो न घटते है न बढ़ते हैं. बस पानी के दाग की तरह वज़ूद के लिबास पर नक्श हो जाते हैं. आखिर वो करे भी तो क्या इस देश में राष्ट्रवाद का दरोगा उनके नाम की लकीर जो खीच चूका है  जो बार-बार उसको एहसास दिलाती रहती है की सुन आदिवासी तेरे विद्रोही सूर बर्दास्त नही किया जायेगा, तू गूँगा है और अगर तू जुबान मांगने निकला तो तेरी इस कोशिश को सरकार के खिलाफ साजिश के तौर पर ही देखा जायेगा. फिर तुझे सर के बल खड़ा होना पड़ेगा और इधर से वहा तक दौड़ कर दिखाना होगा. और वो चुप था और भयभीत था और विकास नामक सरकारी झूठ को स्वीकार करने पर विवश भी था. वो जानता था की उसके जंगल और जमीन को लूट कर सरमायदारों की तिजोरी भरी जा रही है, तुम समझते हो की वो जंगली है लेकिन तुम गलत हो अब ब्रम्हा का कमण्डल लेकर नयी सृष्टि की रचना की जा रही है और उस नयी सृष्टि में तू जंगली नही है. अब जब तू जंगली नही रहा तो क्या हक़ है तुझे की तू इन प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना हक़ जताये. अरे हाँ लगता है तूने मनु स्मृति को ध्यान से नही पढ़ा, पढ़ ले तो तुझे एहसास हो जायेगा की मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का आखिरी रूप यही है और उसका सबसे बड़ा हिस्सेदार तू ही है. 
आप सब को यह जान कर ख़ुशी होगी अब उस आदिवासी को राजद्रोह के आरोप में बन्दी बनाकर जंजीरो में जकड़ा जा चूका है. उसके कंधे पर लोकतंत्र का गिद्ध बैठा उसके माँस को नोच नोच कर खा रहा है और माँस के तमाम लोथड़े कारागार के फर्श पर पड़े तड़प रहे हैं. उसके परिवार वालों के चेहरे बता रहे थे की मारा है भूख ने और सब लोग कह रहे थे की कुछ खा कर मर गये.

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