मीना प्रजापति
अमूमन किसी वर्कशॉप, संगोष्ठी या सेमिनार का आयोजन किसी बदलाव हेतु किया जाता है या समस्याओं से तंग आकर अपनी परेशानियां दूसरों से साझा करने के उद्देश्य से भी! पिछले एक साल से अभी तक मैंने पत्रकारिता विषय पर कई कार्यशालाएं, सेमिनार और संगोष्ठियां अटेंड की हैं और अमूमन यही पाया है कि सभी वक्ता (कुछ को छोड़कर) एक जैसी ही बातें करते हैं। मसलन पत्रकारिता मिशन, मूल्य, कॉर्पोरेट, विज्ञापन आदि-आदि है।
प्रज्ञा संस्थान और गांधी दर्शन समिति के सहयोग से दो दिवसीय 'युवा पत्रकार कार्यशाला' का आयोजन किया गया। इन दोनों दिनों में मैंने कई महान पत्रकार, आंदोलनकारी और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को सुना।इन सब को सुनने का मेरा अनुभव अंशतः अच्छा और अंशतः बुरा रहा। बुरा मैं इसलिए बोल रही हूँ क्योंकि जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि अधिकतर वर्कशॉप्स में एक जैसी बातें ही सामने रखी जाती हैं और ये एक जैसा शायद मुझे इसलिए भी लग रहा हो क्योंकि मैंने पिछले साल 15 दिन की वर्कशॉप 'पत्रकारिता एवं लेखन कार्यशाला' विषय पर ली थी। वहाँ भी मैंने कई नामी-गिरामी जर्नलिस्ट्स और एक्टिविस्ट्स को सुना।वहाँ भी ऐसी ही बातें सामने आईं। शुरू-शुरू में जब पत्रकारिता के बारे में कुछ पता नहीं होता मतलब कॉलेज के प्रथम वर्ष में तब यह ज्ञान मिले तो अच्छा लगता है लेकिन जब एक जैसा ही ज्ञान रोज़ बांटा जाये तो इंसान बोर हो जाता है। दूसरा बुरा बोलने का कारण यह भी है कि इस तरह की कार्यशालाओं का अमूमन कोई हल नहीं निकलता है।
जिस तरह से ये दो दिवसीय कार्यशाला में छात्रों ने विद्वतजनों से सवाल किये परंतु उनके सटीक उत्तर नहीं मिले। मसलन रामबहादुर राय ने अपने वक्तव्य में कहा कि पत्रकार को संयम में होना चाहिए। लेकिन मेरा सवाल उनसे यह था कि सर आज के समय में संयम और टीआरपी की रेस को कैसे जोड़ा जाये? क्योंकि जहाँ हर मीडिया टीआरपी को बढ़ाने के लिए डॉक्टर्ड वीडियो दिखा देता है या केजरीवाल पर स्याही फेंकने वाली गैरआरोपी महिला का फ़ोटो टेलीविजन में दिखा देता है। तो उसके पास तथ्यों को क्रॉस चेक करने तक का समय ही नहीं है। तो ऐसे में संयम कैसे कायम करें?
अब इस प्रश्न का उत्तर राय सर ने एन.के. सिंह पर डाल दिया और एन. के. सिंह सर उस समय मोबाइल में बिज़ी थे तो उन्होंने प्रश्न सुना नहीं और कुल मिलाकर मुझे उत्तर नहीं मिला। हालाँकि मैं यह जानती थी कि मुझे कुछ शब्दों का मुलम्मा पकड़ा दिया जायेगा और सटीक उत्तर नहीं मिलेगा। लेकिन फिर भी मैंने एन. के. सिंह सर से सत्र ख़त्म होने के बाद यही प्रश्न पूछा लेकिन उन्होंने बात को संयम से छोड़कर टीआरपी और रिपोर्टर्स से होने वाली गलतियों के बारे में बताने लगा दिया।
यह वर्कशॉप अंशतः अच्छी इसलिए थी क्योंकि जिस सोच के साथ मैं पत्रकारिता में आई थी लेकिन वो कही धुंधली हो गई थी या मर गई थी उसको साफ करने का काम अवधेश कुमार ने किया। उन्होंने बड़ा ही जोश पूर्ण वक्तव्य दिया और साथ ही यह भी बताया कि समस्याओं से घबराना नहीं है बल्कि उनके बीच का रास्ता निकालना है क्योंकि गांधी जी भी ऐसा ही करते थे। कार्यशाला का विषय गांधी और उनकी पत्रकारिता रखा गया जो कि बहुत सार्थक नहीं था क्योंकि आज के समय में ना तो गांधी जैसी समस्याएं हैं और न ही वैसा माहौल? लेकिन आज हमें ज़रूरत भी है गांधी जैसी पत्रकारिता की लेकिन वो आज कैसे संभव हो ये सवाल है? और एक बात और भी पत्रकारिता के छात्रों की दिमाग की बत्ती भी ऐसी ही कार्यशालाओं में आकर खुलती है। आयोजन सफल रहा..
No comments:
Post a Comment