माननीय मुख्य मंत्री जी और मित्रों,
मेरा तो हमेशा से यह मानना रहा है कि सम्मान साहित्यकार को नहीं बल्कि उस की रचनाओं को मिलता है जिनके माध्यम से लेखक के सरोकार सामने आते है। अनेक लेखकों के वही सरोकार हैं जो मेरे हैं।इसलिए मैं यह मानता हूँ की यह सम्मान केवल मुझे नहीं अन्य तमाम लिखकों को मिला है जो मेरे सहयात्री हैं।
हिंदी अकादेमी दिल्ली ने यह सम्मान देकर उन मुद्दों को महत्त्व दिया है जो मेरे लेखन के प्रमुख मुद्दे हैं ।मैं सदा से यह महसूस करता रहा हूँ कि इस देश के लोगों की समस्याएं ,उनका जीवन और उसमें हस्तक्षेप एक महत्वपूर्ण विषय है जिसे सभी लेखक अपने अपने ढंग से वयक्त करते हैं ।मैंने भी उसी काम को किया है। मैंने इस देश की गरीबी, इस देश की जनता के शोषण,सामाजिक विषमता,भेदभाव,साम्प्रदायिकता ,हिंसा,अधिकारों के हनन और इस देश की अन्य समस्याओं की ओर ध्यान दिया है।मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने, अधिक संवेदनशील बनाने के लिए लिखा है ।
मैंने कोशिश की है कि अपने ढंग से समाज का विश्लेषण करने के बाद अगर संभव हो तो किसी दिशा की ओर संकेत करूं, कुछ बताने की कोशिश करूँ।लेकिन यह सब कलात्मक ढंग से करने की कोशिश की है क्योंकि निश्चित रूप से उपदेश देना या समाधान प्रस्तुत करना लेखक का काम नहीं होता ।
मैं दिल्ली हिंदी अकादमी का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा और शलाका सामान देने का फैसला किया। निर्णायक मंडल के प्रति भी मैं आभार व्यक्त करना चाहता हूं कि उन्होंने मेरे काम को इस योग्य समझा ।
इस अवसर यह कहना चाहता हूं कि लेखन हमेशा मुझे शक्ति देता रहा है। मैं अपने विचारों अपने सरोकारों को व्यक्त कर के काफी संतोष महसूस करता हूं ।यह क्रम जारी रहेगा। इस में किसी प्रकार की रुकावट आने की संभावना मुझे कम लगती है। जब तक मैं कर सकता हूं इस काम को करता रहूँगा ।
मुझे लगता है ,देश में आज जो भी नकारात्मक है उसका उत्तर केवल साहित्य और संस्कृति है।अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि हमारे राजनेताओं ने संस्कृति के महत्व को कम पहचाना है और यही कारण है कि सरकारों की नीतियों में संस्कृति का बहुत कम महत्व दिखाई देता है ।जबकि यह तय है कि सांस्कृतिक विकास के बिना अन्य कोई विकास - विशेष रूप से लोकतंत्र का विकास संभव नहीं है ।
साहित्य और संस्कृति की मूल प्रकृति लोकतान्त्रिक है।जब आप अच्छा संगीत सुनते है, अच्छा चित्र देखते हैं, अच्छी कविता सुनते है तो भाव विभोर हो जाते हैं। आपको कलाकार के धर्म या जाति या संप्रदाय से कुछ लेना देना नहीं होता।सौंदर्य की अनुभूति भाई- चारे, प्रेम ,सहयोग, समता ,उदारता का संचार करती है जिसके कारण सामाजिक और मानवीय रिश्ते मज़बूत होते हैं। यही लोकतंत्र का आधार बनते हैं।इसलिए लोकतंत्र सांस्कृतिक चेतना के बिना हमेशां अधूरा होगा। संसार का इतिहास यह प्रमाणित करता है ।मुझे लगता है कि हमारे देश में जब नाटक देखने ,संगीत सुनने, कविता और कहानी सुनने , चित्रकला देखने उतने ही लोग जाने लगेंगे जितने लोग मंदिर ,मस्जिद ,गुरुद्वारे या चर्च में जाते हैं तब इस देश का लोकतंत्र सच्चा लोकतंत्र होगा।
अब कुछ साहित्य और राजनीति के रिश्ते पर कहना चाहता हूँ।ये रिश्ता रेल की दो पटरियों वाला रिश्ता है।जो एक दूसरे के बिना अधूरी हैं पर कभी मिलती नहीं।राजनीति बाह्य रूप से समाज को विकसित करने का काम करती है और साहित्य समाज को अंदर से बदलने का काम करता है।अंदर के बदलाव के बिना बाहर का बदलाव बेमतलब है।राजनीति समाज से शक्ति लेती है और साहित्य समाज को शक्ति देता है।राजनीती उपलब्धियां गिनाती है और साहित्य कमियां गिनाती है।प्रेमचंद ने कहा भी है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है जो निरंतर आगे ही बढ़ती रहती है ।किसी भी समाज व्यवस्था में साहित्यकार आँखें मूँद कर नहीं बैठ सकता ।
दिल्ली के संदर्भ में इतना कहना चाहता हूं कि कोई बड़ा सांस्कृतिक स्थल दिल्ली में नहीं है। एक समय यह योजना बन रही थी कि मंडी हाउस के आसपास पुराने सरकारी फ्लैट फिर से बनाये जाए और वहां एक बड़ा सांस्कृतिक केंद्र भी स्थापित हो ।मुझे पता नहीं इस संबंध में कौन क्या कर सकता है पर जितना जो कर सकता है उसे करना चाहिए।विश्वास है कि वर्तमान दिल्ली सरकार इस ओर ध्यान देगी।
अंत में इस आयोजन के बारे में कहना चाहता हूँ कि यह सराहनीय है।आयोजकों को जितनी बधाई दी जाए कम होगी।
धन्यवाद।
असग़र वजाहत
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