संदीप कुमार
मैं खामोश आकर्षणों की दुनिया के बिच बड़े उधेड़बुन में हूँ, मैं जब लिख रहा हूँ तो तय नही कर पा रहा क्या लिखूँ. ऐसा भी नही है कि मुझे नहीं पता की मुझे क्या लिखना है लेकिन फिर भी हाथ थरथरा रहा है, ऐसा भी नही है की मैं भयभीत हूँ, बस एक भूचाल सा है दिमाग के कैनवस पर. संशय की स्थिति में मन विचलित है. घर में माँ और बहन, बाहर दोस्त सभी कहते रहते हैं की किस गंभीर चिंता में हो की मौन धारण किये हुए हो. बचपन से ये सोचता आया की भारत में जनता का शासन है जनता ही प्रधान है और लोकसेवक हमारे प्रतिनिधि, पर अब ऐसा नही रहा, भरोशा टूट गया. कारण बहुत हैं जो मनोमस्तिष्क पर हावी हैं. मैं उम्मीद करता हूँ कि जो मैं लिख रहा हूँ वो भारत माता जानती होंगी. एक तरफ देश में खोखले राष्ट्रवाद की झलकियाँ दिखाई जा रही हैं, पूरा देश में मंदिर, देशभक्ति, बीफ़, नारेबाज़ी और भारत के क्रिकेट विश्वकप हारने पर चिंता प्रकट करने में लगा हुआ है आखिर हो भी क्यों न कोहली के इतने शानदार प्रदर्शन पर हार तो चिंता का विषय है. मेरे अधिकतर मित्र मुझसे कहते हैं की भाई भारत तो हार गया और मैं भी सर झुका कर कह देता हूँ की दुखद हुआ और शायद भारत माता भी दुःखी होंगी. आखिर हो भी क्यों न राष्ट्रीय गौरव दाव पर लगा हुआ था. टेलीविजन से चिपका हर चेहरा बुझा-बुझा सा लग रहा था.
दुनिया में सबसे अधिक गोपनीयता से काम करने वाली पनामा की कंपनी मोसाक फोंसेका के लाखों कागज़ात लिक हो गए हैं और इनमें भारत के कई नामी गीरामी हस्तियों के हाथ हैं. जिन्होंने कथित तौर पर टैक्स बचाने और अपना पैसा छिपाने के लिए कंपनी का सहारा लिया, लेकिन अब भ्रष्टाचार भारत में कोई मुद्दा ही नही रहा. सबको बस अपने काम निकालने से मतलब है किसको पड़ी है अनामा-पनामा की. आज ईमानदार वही है जिसको बेईमानी का मौक़ा न मिला हो. क्रांति जोशी लिखते हैं कि कटु, तीक्ष्ण और गालियों से भरी प्रतिक्रिया वहाँ मिलती है जिनसे घृणा या उन्माद पैदा होता है. दूसरा प्रमुख कारण इस विषय को समझना उतना आसान नही है. जिस अडानी के खदान के ठेकों का ऑस्ट्रेलिया में विरोध हो रहा है उसे देश में लूट की पूरी छुट है लेकिन ये चर्चा का मुद्दा नही. कुछ लोगो को शिकायत भी है लेकिन उन शिकायतों को भी मजबूरीवश खुदखुशी करनी पड़ रही है. दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़ के पुलिस स्टेशन में सोनी-सोरी के साथ जो हुआ वो दिल दहला देने वाला जघन्य अपराध ही नही बल्कि मानवता को कलंकित करने वाली घटना ही थी. एक स्कुल में पढ़ने वाली एक आदिवासी महिला के कपडे उतार दिए गए, नंगा कर के पीटा गया. बिजली के झटके दिए गए, भद्दी-भद्दी गालियां दी गयी. उसके यौननांग में गिट्टी-पत्थर डाला गया. ऐसा घृणित काम करने वाले वहाँ के पुलिस के मुलाजिम थे जिनपर हमारी माँ-बहनों की इज्जत बचाने का उत्तरदायित्व होता है. वही लोगों ने इस महिला की इज्ज़त लूट ली और हैवानियत की हद तक ज़लील किया. वो भी वहाँ के सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस की उपस्थिति में, उसके दिशा निर्देश पर गुनाह ? लेकिन भारत माता तो सब देख रही होगी. तो क्या ये भी एक भारतीय राष्ट्रवाद का ताना बाना था. हमारे सामने खोखला राष्ट्रवाद मुँह बाये खड़ा है और वह पूछ रहा है की उस दिन इस देश के बुद्धिजीवी राष्ट्रवादी कहाँ थे जिस वक़्त सोनी-सोरी घुट रही थी तब हमारा देश क्रिकेट की चिंता में डूबा हुआ था. अरे सत्य तो यह है की राष्ट्रवाद और मानवतावाद जैसे शब्द अब बासी हो गए हैं. ये सिकुड़ता हुआ राष्ट्रवाद अपने से कमजोर पर ही आक्रामक होता है. एक सत्तारूढ़ पार्टी की महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष ये कहती है कि "जूते साफ़ करने वाले संविधान के बूते हमपर राज कर रहे हैं" ये राष्ट्रवादी कथन है. देश का कृषि मंत्री ये कहते हैं कि किसान नपुंसकता के लिए आत्महत्या करते हैं. एक राज्य के मुख्यमंत्री ये कहते हैं की औरतों को आज़ादी चाहिए तो नंगी घुमे. यहाँ तक की देश के प्रधानमंत्री कहते हैं की एक जवान से ज्यादा जोख़िम एक व्यापारी उठाता है. ये सब राष्ट्रवाद की परिभाषा है जो हमारे लोकसेवकों ने बनाई है.
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