हर संस्कृति का जन्म एक विशिष्ट भौगोलिक स्थिति की देन होता है। बिना अपनी जमीन के न कोई संस्कृति पनपती है न ही जीवित रह सकती है। उत्तराखंड राज्य के संदर्भ में यह बात सटीक जान पड़ती है। गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित उत्तराखंड फोरम की पहली बैठक में "उत्तराखंडः वर्तमान परिस्थिति विकल्प की आवश्यकता और चुनौतियां" विषय पर चर्चा आयोजित की गई जिसका उद्देश्य उत्तराखंड में तीसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश है।
कार्यक्रम के दौरान साहित्यकार पंकज बिष्ट ने कहा कि सही लोग सही विचार के लिए सही बात के लिए एकत्रित हो वह समाज में कुछ अच्छा कर सकते है। आज छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड में एक जैसी स्थिति है। ताकतवर लोगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुन दोहन हो रहा है जिसका असर पूरा गंगा यमुना के क्षेत्रों पर भी पडे़गा। उन्होंने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में जंगलों में आग लगने की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं उत्तराखंड में आग लगने की घटनाएं सबसे ज्यादा हैं जबकि हिमाचल प्रदेश भी पहाडी क्षेत्र है मगर वहां ऐसी घटनाओं का प्रतिशत बहुत कम है। उत्तराखंड में इस बीच पलायन बहुत बढा है। पिछले 10 सालों में पौडी गढ़वाल में पलायन 136 प्रतिशत है। विस्थापन नहीं रूका तो आग फैलती जाएगी। उसे रोकने वाले नहीं बचेंगे।
उत्तराखंड में जमीन की लूट के मामले लगतार सामने आ रहें हैं, खेती पूरी तरह ख़त्म हो गयी है, अन्धाधुन निर्माण कार्यों के चलते यहाँ का वातावरण भी प्रदूषित हो गया है.
इसी बात की
उमाकांत लखेडा ने कहा कि यह राज्य उत्तरप्रदेश का विस्तार बन कर रह गया है। हमारी भाषा बोली में कोई संवृद्धि नहीं हुई।
जन मीडिया के संपादक अनिल चमडिया ने कहा कि हमें सबसे पहले यह बात समझनी होगी कि उत्तराखंड सांस्कृतिक सुख के लिए नहीं है। हमें इस तरह की कई बैठके सिर्फ उत्तराखंड के 13 जनपदों में ही नहीं बल्कि दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में करनी चाहिए जिससे कि उत्तराखंड के और भी लोग इसमें शामिल हो सके।
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