रविश कुमार
आख़िर दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक फिर से विद्रोही तेवर में क्यों नज़र आ रहे हैं? एफवाईयूपी की लंबी लड़ाई के बाद क्या ये लड़ाई भी लंबी होने जा रही है। ऐसा क्यों होता है कि जब शिक्षक संघर्ष पर उतरते हैं तो समाज मुंह मोड़ लेता है। क्या इसकी वजह शिक्षक खुद हैं या समाज को पता ही नहीं है कि शिक्षकों का काम क्या है। पिछले कुछ हफ्तों में दिल्ली विश्वविद्यालय में साझा मोर्चा बना हुआ है। बीजेपी से लेकर कांग्रेस और वाम मोर्चा से जुड़े शिक्षक संगठन यूजीसी की एक गजट अधिसूचना के ख़िलाफ़ एकजुट हो गए हैं। शिक्षकों का कहना है कि अगर यह अधिसूचना वापस नहीं हुई तो इस हाल में जो सैकड़ों की भीड़ दिख रही है और हाल के बाहर इस मार्च में जो संख्या दिख रही है, वो शायद नौकरी से ही बाहर हो जाए। यूजीसी का आदेश लेफ्ट से लेकर राइट तक के शिक्षकों को डरा गया है। एक अनुमान के अनुसार लगभग पांच हज़ार एडहॉक यानी तदर्थ शिक्षकों की नौकरी जा सकती है। क्या कोई भी सरकार इतनी बड़ी संख्या में नौकरियों में कटौती करने का जोखिम उठाएगी। दूसरा सवाल है स्थायी शिक्षकों का कार्यभार बढ़ा दिया है। स्थायी शिक्षक कहते हैं कि उनका काम बढ़ाने से वे शिक्षण कार्य के साथ इंसाफ नहीं कर सकते बल्कि ये करना मुमकिन नहीं है। संसाधन और सुविधाओं को देखते हुए ये मुमकिन नहीं है। इनकी कोई सुन नहीं रहा इसलिए आज दिल्ली विश्वविद्यालयों के शिक्षकों ने थाली करछी लेकर धरना दिया। मेरी आवाज़ सुनो टाइप। सब की यही शिकायत है कि कोई हमारी नहीं सुन रहा। यह इस बात का प्रमाण है कि सुनने वाली संस्थाएं आसानी से नहीं सुनती या फिर सुनती ही नहीं।
हम और आप जब सुनेंगे कि एक सहायक प्रोफेसर से हफ्ते में 24 घंटा पढ़ाने के लिए कहा जा रहा है और उन्हें एतराज़ है, तो हो सकता है कि हमें इस बात से कोई सहानुभूति नहीं हो। क्या हम जानते हैं कि 24 घंटा पढ़ाने का क्या मतलब है। एक घंटा बोलने के लिए कितनी ऊर्जा की ज़रूरत होती है, कितनी तैयारी की होती है। मुझे एक घंटे के 'प्राइम टाइम' के लिए रोज़ाना सात से आठ घंटे की पढ़ाई पढ़नी पड़ती है और एक घंटे के शो के बाद किसी काम लायक नहीं बचता। टीचर एक-एक घंटे का एक दिन में तीन क्लास क्या ले सकते हैं। लगातार बोलना, बोलते हुए नए नए तथ्यों को ज़हन में रखना और छात्रों से बेहतर संवाद बनाना।
सुशील महापात्रा ने कुछ छात्राओं से पूछा कि आपकी नज़र में टीचर क्या करते हैं। शिक्षकों को खुश होना चाहिए कि छात्राओं को पता है कि उनकी मेहनत क्या है। लेकिन एक हकीकत यह भी है कि तमाम विश्वविद्लायों में नहीं पढ़ाने वाले शिक्षकों की घोर कमी है। अगर सारे ही शिक्षक नहीं पढ़ाते हैं तो फिर विश्वविद्यालय चलते कैसे हैं। फिर तो वाइस चांसलर से लेकर प्रिंसिपल तक कोई काम ही नहीं करता होगा। वो एक तस्वीर है मगर पूरी तस्वीर नहीं है। पिछले कुछ हफ्तों में मैंने जजों की समस्या पर प्राइम टाइम किया। पुलिस के जवानों के चौदह-चौदह घंटे काम करने को लेकर प्राइम टाइम और डॉक्टरों की कमी को लेकर भी। आज बारी शिक्षकों की है। हमने एक शिक्षक से बात की उन्हें एक लेक्चर के लिए कितना काम करना पड़ता है। फिलहाल डीयू के एक शिक्षक ने बताया कि उन्हें हफ्ते में 14 से 16 घंटे तक पढ़ाना पड़ता है। हो सकता है कि रोज़ आठ घंटे काम करने वाले हफ्ते में 14 से 16 घंटे की बात सुनकर शिक्षकों की बात न समझ पाए। डीयू के टीचर में मुझे कहा कि पढ़ाना जिसे हम लेक्चर कहते हैं एक सघन गतिविधि है। आप एक घंटे तक लगातार बोलते हैं, बोलने के लिए सोचते हैं और सोचते-सोचते यह ध्यान में रखते हैं कि छात्रों को बात समझ में आई या नहीं। आपके पास क्लास में रुक कर दस मिनट सोचने का, संभलने का वक्त नहीं होता है। पढ़ाने के लिए हर दिन घर पर या लाइब्रेरी में तीन से चार घंटे लगातार पढ़ना पड़ता है। पढ़ाने के लिए तैयारी में हर हफ्ते औसतन पंद्रह घंटे लग जाते हैं।
अब आइये असाइनमेंट पर। असाइनमेंट को एक किस्म का होमवर्क समझिये। एक शिक्षक को एक महीने में 120 असाइनमेंट चेक करने होते हैं। एक असाइनमेंट छह से पंद्रह पन्नों का होता है। जिनकी जांच में हफ्ते का दस घंटा चला जाता है। पांच से दस पन्ने का होता है। अगर क्लास में छात्रों की संख्या ज़्यादा है तो असाइनमेंट की संख्या भी ज़्यादा हो सकती है। इसलिए अगर आप शिक्षकों के काम को सिर्फ तीन क्लास की संख्या से देखेंगे तो सही नहीं होगा। यह भी ध्यान रखिये कि शिक्षक एक तरह से छात्रों का कॉल सेंटर भी होता है। व्यक्तिगत समस्याओं से लेकर सामाजिक समस्याओं में भी हिस्सेदार हो जाता है। उसमें जो समय जाता है उसका कोई हिसाब किताब नहीं है। कई शिक्षक छात्रों के लिए रेकमेंडेशन लिखते हैं। रातों को जाग जाग कर ताकि छात्र को विदेशों में किसी अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिला मिल जाए या छात्रवृत्ति मिल जाए। ऐसे एक पत्र लिखने में शिक्षकों के कई घंटे चले जाते हैं। इस काम का हिसाब यूजीसी से लेकर समाज की किसी स्मृति पुस्तिका में दर्ज नहीं होता है। अटेंडेंस रजिस्टर और परीक्षा के नंबरों का डेटा अपलोड करना और कॉपी चेक करने का काम तो मैंने अभी बताया भी नहीं। आप भी दुखी हो जाएंगे और कभी न टीचर बनने की कसम खा सकते हैं।
ये सिर्फ पढ़ाने का हिसाब है। प्रशासनिक कार्यों का हिसाब मैंने नहीं दिया है क्योंकि टीवी में हर बारीक जानकारी देना मुश्किल हो जाता है। यूजीसी और विश्वविद्यालय उम्मीद भी करता है कि हर शिक्षक इतना काम करने के बाद रिसर्च में भी उतना ही बेहतर करे। इससे ये हुआ है कि जो टीचर सिर्फ बेहतर टीचिंग करना चाहते हैं, उन्हें कमतर बना दिया गया है, मतलब पढ़ाना तभी पढ़ाना माना जाएगा जब आप रिसर्च करें। लेकिन दिन भर के इतने काम के बाद आप सोचिये कि रिसर्च करने के लिए किस लाइब्रेरी में जाएगा। नया पर्चा लिखने के लिए कहां जाएगा। डीयू जैसे विश्विविद्यालय में शिक्षकों के पास अपने कमरे तक नहीं होते। कभी एक साथ सभी शिक्षक कॉलेज आ जाएं तो स्टाफ रूप में उनके बैठने के लिए कुर्सियां तक नहीं होती हैं। ये उस विश्वविद्यालय का हाल है जहां किसी को 95 फीसदी से कम पर एडमिशन नहीं मिलता लेकिन इसके बावजूद उसी विश्वविद्यालय की इतनी साख तो है कि लोग 98 प्रतिशत लेकर डीयू ही आते हैं। तो यह साख कैसे बनी होगी। क्या नहीं पढ़ाकर बनी होगी। तो फिर शिक्षक किन बातों को लेकर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। क्योंकि यूजीसी चाहती है कि शिक्षक और ज़्यादा पढ़ाएं। एक अस्सिटेंट प्रोफेसर को हफ्ते में 16 घंटे की जगह 18 घंटे पढ़ाना होगा। अलग से छह घंटे ट्यूटोरियल्स के लिए देने होंगे। एसोसिएट प्रोफेसर को 14 घंटे की जगह अब 16 घंटे पढ़ाने होंगे और ट्यूटोरियल्स के लिए 6 घंटे देने होंगे। प्रोफेसर को 14 घंटे पढ़ाने के और 6 घंटे ट्यूटोरियल्स के देने होंगे।
यूजीसी ने इन सब गतिविधियों को पहले Direct Teaching Hours में शामिल किया था, मगर अब इसकी परिभाषा बदल कर इसमें से ट्यूटोरियल्स को बाहर कर दिया गया है मतलब ट्यूटोरियल को शिक्षण नहीं माना जाएगा। और विश्वविद्यालयों का तो पता नहीं, लेकिन डीयू में ये व्यवस्था है जिसमें टीचर छात्रों के छोटे-छोटे समूहों के साथ अलग से क्लास लेता है जहां उनके साथ मेन लेक्चर को लेकर बात होती है कि उन्हें समझ आई या नहीं। यह क्लास भी एक तरह से लेक्चर जैसा हो जाता है। जिनता मैं समझ सका हूं अब यूजीसी ने कहा है कि इन 6 घंटों में ट्यूटोरियल्स भी लेने होंगे, सेमिनार भी करने कराने होंगे, प्रशासनिक काम भी करना होगा, इनोवेशन भी करना होगा और कोर्स के कंटेंट को अपडेट भी करना होगा। क्यों करना होगा इसकी कोई वजह नहीं बताई गई है। इससे क्या होगा, हम बात करेंगे लेकिन इसी कारण यह कहा जा रहा है। स्थायी शिक्षकों का कार्य भार बढ़ा देने से विश्वविद्लायों में नई नौकरियों की संभावनाएं कम हो जाएंगी। इससे युवा शिक्षकों को नौकरी नहीं मिलेगी और कई वर्षों से अस्थायी तौर पर पढ़ा रहे शिक्षकों की नौकरी चली जाएगी। केवल दिल्ली विश्विविद्यालय में पांच हज़ार अस्थायी शिक्षकों की नौकरी जा सकती है। देश के बाकी विश्वविद्लायों में शिक्षकों का पद कम होता चला जाएगा। नई नौकरियां नहीं होंगी।
अब आप पूछेंगे कि नौकरी कम हो जाएगी तो क्या फर्क पड़ेगा। बिल्कुल सही सवाल है। सिर्फ ये बात किसी युवा से मत कहियेगा जो पीएचडी या एम फिल कर देश के लिए पढ़ाने का ख्वाब देख रहा है। फिर हम यह भी चाहते हैं कि हमारे विश्वविद्यालय दुनिया के नामी विश्वविद्यालय के जैसे क्यों नहीं बन सकते। ये बात आपकी सही है। बिल्कुल बन सकते हैं लेकिन हमें ये देखना होगा कि वो क्यों हैं। अभी मैं प्राइवेट विश्वविद्यालय और सरकारी विश्वविद्लाय की बहस में नहीं घुस रहा। वो अलग मसला है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक शिक्षक पर 7 छात्रों का भार है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक शिक्षक पर 11 छात्रों का भार है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में एक शिक्षक पर 12 छात्रों का बोझ है। दिल्ली विश्वविद्लाय में एक शिक्षक पर 20 छात्र हैं।
शिक्षक संघ का कहना है कि यूजीसी के नोटिफिकेशन से हर टीचर पर छात्रों का भार और बढ़ेगा और उनके लिए मुमकिन नहीं होगा कि वे सभी छात्रों का ख़्याल रख सकें। दुनिया के नामचीन विश्वविद्यालयों में एक टीचर को हफ्ते में छह घंटे ही पढ़ाने होते हैं। एक तरफ हम दुनिया के विश्वविद्यालयों का सपना देख रहे हैं, दूसरी तरफ उनके पैमानों के खिलाफ नियम भी बना रहे हैं। इसके विरोध में दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ 24 मई से 1 लाख तीस हज़ार छात्रों की कॉपी नहीं जांच रहे हैं। हज़ारों नौकरियां जाने के अलावा उनका कहना है कि टीचिंग आवर्स में बहुत ज़्यादा बढ़त से रिसर्च और प्रशासनिक ज़िम्मेदारियों पर ध्यान देने मुश्किल होगा। जिस API (Academic Performance Indicators) टार्गेट पर शिक्षकों का प्रमोशन तय होता है, ख़ासतौर पर असिस्टेंट प्रोफेसर का, उससे उनका प्रमोशन मुश्किल हो जाएगा।
अस्थायी शिक्षकों की बहुत दुर्गति है। उनसे शिक्षण के अलावा जिस तरह के काम कॉलेजों में कराए जाते हैं वो अगर मैं गिनाने लगूं तो आपकी शाम ख़राब हो जाएगी। आपका मूड ठीक रहे इसलिए थोड़ा सा बताए देता हूं। महीने में एक या दो बार योगा क्लास में रहना होता है। इसके लिए घर से पांच बजे निकलना होता है क्योंकि योगा क्लास साढ़े छह बजे होती है। अगर पढ़ाने की क्लास बारह बजे से हो तो आपको कालेज में पांच घंटे इंतज़ार करना होता है। केंद्र और राज्य सरकार के दिवसों में शामिल होना पड़ता है,जैसे स्वच्छ भारत अभियान,गुड गर्वनेंस। इन दिवसों में छात्रों को जमा करने से लेकर लंच कूपन बांटने का काम शामिल होता है। हर तीसरे चौथे दिन पर विभागीय बैठक होती है, कई बार मीटिंग क्लास के समय हो जाती है। क्लास छोड़ कर मीटिंग में नहीं गए तो प्रिसिंपल नाराज़, क्लास नहीं गए तो छात्र नाराज़। कॉलेज के सरकारी कार्यों का डेटा बनाना, अपलोड करना ये सब भी काम है। कॉलेज की पार्टियों में अस्थायी टीचर सिक्योरिटी के तौर पर मौजूद रहते हैं।
अस्थायी शिक्षको को इस तरह के कई कार्य करने होते हैं पढ़ाने के अलावा। डीयू में पांच हज़ार के करीब अस्थायी शिक्षक क्यों हैं। यह भी एक सवाल है। इसका मतलब है इतने शिक्षकों की ज़रूरत है तो नौकरी क्यों नहीं दी जाती। क्या आप या हम जानते हैं कि सभी विश्वविद्लायों में कितनी नौकरियां हर साल निकलती हैं। कितने पद अस्थायी रह जाते हैं और स्थायी रूप से भरे नहीं जाते। जुलाई 2014 में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने लोकसभा में बताया था कि 39 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 16,692 पद मंज़ूर हैं जिनमें से 6251 पद ख़ाली हैं। ये तो ख़ाली की संख्या थी। जो पद ख़ाली नहीं थे उन पर स्थायी नियुक्ति थी या अस्थायी ये जानना दिलचस्प होता। जैसे डीयू में ही अस्थायी शिक्षकों की संख्या 5000 हज़ार बताई जाती है। देश के तमाम राज्यों के विश्वविद्यालयों के आंकड़े आ जाते तो सही से पता चलता कि कितने पद मंज़ूर हैं और कितने पदों पर अस्थायी तौर पर नियुक्तियां हो रही हैं।
(रविश कुमार के फेसबुक वाल से साभार)
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