उन्मुक्त अभिव्यक्ति की आजादी वह मामला है जिसके पैमाने पर हमारी संस्थाएं फेल भी हुई हैं और कभी-कभी पास होकर हमेशा टापर बने रहने का खुशनुमा भ्रम भी पैदा करती रही हैं। अभिव्यक्ति की आजादी कौन तय करता है, इसका भी फैसला होना चाहिए। कभी कोई धार्मिक संगठन आ जाता है, कभी कोई राजनीतिक संगठन आ जाता है तो कभी न्यूज़ चैनल भी आ जाता है। तमाम फैसले के बाद भी अभिव्यक्ति की आजादी का मामला अभी तक सुलझा नहीं है। आहत योग्य भावनाएं सदियों से हमारी अभिव्यक्ति पर पहरा दे रही हैं। चुनाव आते ही धार्मिक ग्रंथों की तुलना से लेकर अपमान तक का मामला अभिव्यक्ति की आजादी का इम्तिहान लेता रहता है। मौजूदा संदर्भ में तमिलनाडू के लेखक पेरुमल मुरुगन का मामला है जिनके बारे में चेन्नई हाई कोर्ट का एक फैसला है।
पिछले साल जनवरी में पी मुरुगन ने फेसबुक पर लिखा था कि लेखक पी मुरुगन मर गया है। वो भगवान नहीं है कि पुनर्जीवित होगा। चेन्नई हाईकोर्ट में उनके खिलाफ याचिका दायर की गई कि मुरुगन की किताबों को वापस ले लिया जाए और उन पर आपराधिक मामला चले क्योंकि इससे जाति और धार्मिक भावना नाम की दो भावनाओं को ठेस पहुंची है। चेन्नई हाईकोर्ट ने दोनों याचिकाएं खारिज कर दीं और अपने फैसले में जो लिखा उसे मील का पत्थर बताया जा रहा है। चीफ जस्टिस सी जेकौल और जस्टिस पुष्पा सत्यनारायण ने यह फैसला लिखा है। मुरुगन की एक रचना वन पार्ट वुमन को लेकर विवाद हुआ था। इस कहानी के पात्र बच्चा न होने के सामाजिक दबाव में हैं। समाज के दबाव में एक धार्मिक मौके पर स्त्री किसी पराए मर्द से संबंध बनाती है। इस कथा को लेकर कुछ लोग भड़क गए कि यह अश्लील है और इससे स्थानीय संस्कृति और परंपरा बदनाम हुई है।
चेन्नई हाई कोर्ट अपने फैसले में उस मुरुगन को पुनर्जीवित होने के लिए कहता है जिसने अपने मरने का ऐलान कर दिया था। अदालत कहती है उठो और लिखो। एक जीवंत लोकतंत्र के नागरिक की पहचान यही होती है कि वो समय के साथ अपने विरोधी के संग चलना सीखे। हर लेखन किसी के लिए आपत्तिजनक है इसलिए उसे अश्लील अभद्र और अनैतिक नहीं कहा जा सकता है।
भारत का संविधान दुनिया के सबसे उदार और आधुनिक होने का लाभ प्राप्त है। हमारे संविधान का एक सबसे यादगार अधिकार है कि बोलो अपने मन से और लिखो अपने मन का। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस पर कुछ पाबंदियां हैं लेकिन इसके बाद भी लिखने और बोलने की हदें काफी बड़ी हैं।
यह फैसला अपनी प्रस्तावना से लेकर अंजाम तक पढ़ने लायक है। क्या लिखें और किस हद तक लिखें कि जो हमारी आपकी समझ को बेहतर करे। एक ऐसे दौर में जब सोशल मीडिया पर मौजूद ट्रोल के भय से कई लोग लिखने से डरते हैं, कई लोग अदालत तक जा नहीं पाते, न लिखने का माहौल बनाना भी अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ माहौल बनाना है। इसके लिए आपको अदालत से बैन की मांग नहीं करनी पड़ती है। सरकार और राजनीतिक दल अपने गुप्त रूप से तैयार किए गए जैविक दल-बल के आधार पर आपको भयभीत कर सकते हैं। लिखने पर बदनाम करने का अभियान चलाना भी एक किस्म की अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ राजनीतिक कोशिश है।
फैसले की प्रस्तावना में चीफ जस्टिस कौल लिखते हैं कि समाज किसी किताब को पढ़ने के लिए, किताब जो कहती है उससे बिना आहत हुए आत्मसात करने के लिए तैयार है या नहीं। इन सब बातों पर वर्षों से विवाद होता रहता है। समय बदल गया है। पहले जो स्वीकृत नहीं था, अब स्वीकृत है। Lady Chatterleys Lover इसका क्लासिक उदाहरण है। पढ़ने का विकल्प पाठक का होता है। साहित्यिक स्वाद में अंतर हो सकता है, किसी के लिए जो सही और स्वीकृत है, हो सकता है दूसरे के लिए न हो। फिर भी लिखने का अधिकार निर्बाधित है, बेरोकटोक है। अगर कोई कंटेंट संवैधानिक मूल्यों को चुनौती देता है या उसके बरखिलाफ है, नस्लीय मसलों को उभारता है, जाति का अपमान करता है, ईशनिंदा के संवाद हैं, उसमें सेक्स से संबंधित स्वीकार न की जाने वाली बाते हों, मुल्क के खिलाफ ही युद्ध छेड़ने की बात हो तब तो बेशक राज्य हस्तक्षेप करेगा।
Lady Chatterleys Lover पर भारत के सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध लगा दिया था। चेन्नई हाईकोर्ट के दो जज एक किताब से बैन हटाने के लिए इस उपन्यास का सहारा लेते हैं। फैसले में यह भी लिखा जाता है कि मुरुगन को भय में नहीं रहना चाहिए। उन्हें लिखना चाहिए और अपने लेखन के कैनवस का विस्तार करना चाहिए। उनका लेखन साहित्य में योगदान माना जाएगा, बावजूद इसके उनसे असहमत होने वाले लोग भी होंगे। मगर इसका हल यह नहीं है कि लेखक खुद को मरा हुआ घोषित कर दे। वो उनका मुक्त फैसला नहीं था बल्कि एक बनाई गई स्थिति में लिया गया था।
इस फैसले से लेखक, कलाकार रोमांचित क्यों हैं। इससे क्या ऐसा बदल गया है कि उन्हें लगता है कि अज्ञात शक्तियों के बनाए भय के वातावरण में वे इसके सहारे कुछ भी लिख-पढ़ सकेंगे। क्या यह फैसला अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में दिए गए पहले के तमाम फैसलों से ज़्यादा स्पष्ट है। ज़्यादा साहसिक है और लीक से हट कर है। क्या यह फैसला बंदिशों के दायरे में हमें अनंत जगह देता है जहां हम कुछ भी लिख सकते हैं। किसी को कुछ भी बोल सकते हैं। सिद्धार्थ भाटिया ने इस पर अपना एक मत पेश किया है।
सिद्धार्थ भाटिया को एतराज़ है कि फैसले का आधार तर्कसंगत नहीं है। किताब लोकप्रिय है, आलोचकों ने सराहना की है, लेखक को पुरस्कार मिले हैं, यह सब आधार क्यों बना। यह आधार क्यों नहीं बना कि रुढ़ीवादी समाज से बगावत करने का अधिकार किसी लेखक को है। इससे तो यही लगता है कि कानून उसी लेखक की रक्षा करेगा जो मुख्यधारा में काफी सफल रहा हो। मुरुगन लोकप्रिय या सम्मानित हैं तो उनको छूट मिलेगी मगर मंटो जैसा लेखक अगर सम्मानित नहीं है तो उसे छूट नहीं मिलेगी। सिद्धार्थ कहते हैं कि 50 साल पहले लेडी चैटर्ली लवर पर लगे बैन को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एम हिदायतुल्लाह ने सही ठहराया था। 50 साल बाद इसे गलत बताया गया। ज़ाहिर है दोनों ही फैसले जज केंद्रित हैं। इस बात पर निर्भर करता है कि कोई जज किसी केस के बारे में कैसा महसूस करता है।
क्या यह फैसला वाकई मुरुगन जैसे लोकप्रिय या पुरस्कृत लेखकों के लिए है, क्या इस फैसले के बाद भी कानून की कोई निश्चित प्रक्रिया स्थापित नहीं होती है जिसके आधार पर कोई भी लेखक अपने लिए इंसाफ मांग सकेगा। अदालत ने कला संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाने का आदेश दिया है जो ऐसे मामलों में किया जाए, इसकी रूपरेखा तय करेगी। उनकी गाइडलाइन को पुलिस से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों को भिजवाया जाए। अदालत ने कहा है कि ऐसे मामलों में मुकदमा शुरू होने से पहले सजा दे दी जाती है जो ठीक नहीं है। लोगों का दबाव रहेगा मगर राज्य उस दबाव को लेखक या कलाकार पर हावी न होने दे। अन्य तरीकों से उन्मुक्त अभिव्यक्ति के अधिकार को सुरक्षित रखे। कानून बनाए रखने के नाम पर कलाकार को अपने स्टैंड से मुकरने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा न ही नॉन स्टेट एक्टर को इजाज़त होगी कि वो तय करे कि क्या अनुमति योग्य है, क्या नहीं। समाज के एक तबके से जब भी किसी लेखक या कलाकार पर हमला होगा, राज्य को पुलिस सुरक्षा देनी होगी।
प्रकाशकों की भूमिका के बारे में इस फैसले में कई अच्छी बातें हैं। कई बार प्रकाशकों पर हमला हो जाता है और वे अपने नुकसान से डर जाते हैं। हाल ही में राणा अय्यूब की किताब गुजरात फाइल्स छापने से कई प्रकाशक मुकर गए। राणा अय्यूब को खुद ही किताब छापनी पड़ी। कई बार छपी हुई किताब प्रकाशक वापस ले लेते हैं। वेंडी डोनियर की दि हिन्दूज़ एंड अलर्टेनिटव हिस्ट्री को लेकर भी ऐसा ही कुछ हुआ था। इस फैसले को जिस तरह से पढ़ा जा रहा है, इसके अंशों को प्रकाशित किया जा रहा है, हमें लगा कि इस पर बात करनी चाहिए। क्या यह फैसला उन्मुक्त अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में नज़ीर है या इसका संदर्भ सिर्फ मुरुगन की किताब तक ही सीमित है।
(रविश कुमार के फेसबुक वाल से साभार)
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