प्रेम सिंह
यह विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और नेताओं द्वारा प्रतिमाओं (icons) का राजनीतिक सत्ता के लिए इस्तेनमाल का दौर है। प्रतिमाओं के राजनैतिक इस्तेमाल की यह प्रवृत्ति इकहरी और एकतरफा न होकर काफी पेचदार है। इसमें अपनी पसंदीदा प्रतिमा को उठाने के लिए किसी दूसरी प्रतिमा को गिराना आवश्यफक कर्म हो जाता है। नई प्रतिमाएं अपनाई जाती हैं और पुरानी छिपाई जाती हैं। प्रतिमाओं की छीना-झपटी होती है और यह आरोप-प्रत्यारोप भी कि फलां राजनीतिक पार्टी/नेता फलां प्रतिमा को अपनाने का हकदार नहीं है। प्रतिमाओं की यह छीना-झपटी कई बार मिथक-लोक तक पहुंच जाती है। सेकुलर भी संघियों की तरह मिथक-लोक को इतिहास की किताब की तरह पढने और समझाने लगते हैं। प्रतिमा जरूरी नहीं है, जैसा कि अक्ससर होता है, स्वतंत्रता आंदोलन के दौर की यानी भूतकालिक हो। कारपोरेट और मीडिया द्वारा कतिपय जीवित शख्सों को भी रातों-रात प्रतिमा का गौरव प्रदान कर दिया जाता है। प्रतिमा होगी तो भक्तो भी होंगे। जैसे कुछ दिन पहले के ‘सोनिया-भक्त’ और हाल के ‘मोदी-भक्त’! बीच में अण्णा हजारे के भक्तों की बाढ भी देखी गई। उसे देख कर लगा गोया पूरा देश ही बह गया है - यानी भ्रष्ट भारत! बाद में पता चला कि कारपोरेट निर्मित वह बाढ कांग्रेस को बहा कर मोदी और केजरीवाल को नवउदारवाद की आगे की बागडोर थमाने के लिए थी। बहरहाल, प्रतिमाओं के राजनैतिक इस्तेामाल की प्रवृत्ति का इस कदर जोर है कि अलग-अलग विचारों/खेमों के बुदि्धजीवी भी यह कवायद करने में लगे हैं।
ध्यान दिया जा सकता है कि नवउदारवाद आने के साथ प्रतिमाओं के इस्तेमाल और टकराहट का कारोबार तेज होता चला गया है। जताया यह जाता है कि यह अलग-अलग विचारों और प्रतिबद्धताओं का संघर्ष है जिसे अब जाकर सही मायनों में अवसर और तेजी मिली है। लेकिन अंदरखाने ज्यादातर प्रतिमा-पूजक और प्रतिमा-भंजक नवउदारवाद की मजबूती चाहने और बनाने में लगे होते हैं। एक छोटे से उदाहरण से इस सर्वग्रासी प्रवृत्ति को समझा जा सकता है। हाल में सीपीआई (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने अंबेडकर और भगत सिंह के सपनों का भारत बनाने का आह्वान किया है। लेकिन इसके साथ ही वे एनजीओ सरगना अरविंद केजरीवाल के भी पहले दिन से खुले समर्थक हैं। ऐसे हालातों में सत्ता की दलाली करने वाले लोग भी प्रतिमाओं का अपने निजी फायदे के लिए इस्तेमाल करें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
हमने यह टिप्पाणी दरअसल यही दर्शाने के लिए लिखी है। एक ताजा उदाहरण द्रष्टव्य है। निजी आईटीएम यूनीवर्सिटी, ग्वालियर में 27 अगस्त 2016 को डॉ राममनोहर लोहिया स्मृति व्याख्यान के प्रमुख अतिथि यानी प्रमुख वक्ता भाजपा के वरिष्ठ नेता और गृहमंत्री राजनाथ सिंह हैं। कार्यक्रम में अलग-अलग पार्टियों के कई अन्य नेता/मंत्री भी आमंत्रित हैं। कोई नेता किसी प्रतिमा के नाम पर आयोजित स्मृति व्याख्या्न दे, इसमें बुराई नहीं है। लेकिन उससे विषय के ज्ञान की अपेक्षा गलत नहीं कही जा सकती। राजनाथ सिंह अच्छे भाजपा नेता हो सकते हैं, लोहिया के चिंतन पर उनके अध्ययन और समझदारी का पूर्व-प्रमाण नहीं मिलता। जाहिर है, यह सत्ता की दलाली के लिए किया गया आयोजन है। यह सच्चाई इससे भी स्पष्ट होती है कि लोहिया के नाम पर आयोजित इस स्मृति व्याख्यान का कोई विषय नहीं रखा गया है। जो वक्ता जिस तरह से चाहे लोहिया, जिन्होंने शिक्षा, भाषा, शोध, कला आदि को उपनिवेशवादी शिकंजे से मुक्त करने की दिशा में विशिष्ट प्रयास किए, को नवउदारवाद के हमाम में खींच सकता है। इस निजी यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित यह दूसरा लोहिया स्मृति व्याख्यान है। पिछले साल उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जो स्मृति व्याख्यान दिया था, उसका भी कोई विषय नहीं था। कहने की जरूरत नहीं कि हामिद अंसारी सरकार में कितने भी बडे पद पर हों और उस नाते निजी विश्वविद्यालयों को फायदा पहुंचाने की हैसियत रखते हों, राजनाथ सिंह की तरह लोहिया के जीवन, राजनीति और विचारधारा के अध्यंयन का उनका भी कोई पूर्व-प्रमाण नहीं मिलता।
आजादी के संघर्ष में हिस्साह लेने वाले प्राय: सभी नेता उच्च स्तर के विचारक भी थे। उनके विषय में दूसरी महत्व्पूर्ण बात यह कही जा सकती है कि वे प्राय: सभी संस्थानों के बाहर सक्रिय थे; बल्कि उन्हों ने आजादी की चेतना फैलाने और आजादी पाने के रास्ते पर संस्थानों का निर्माण किया। इन नेताओं का निजी मुनाफे के लिए चलाए जाने वाले शिक्षा संस्थानों के लिए इस्तेमाल गंभीर चिंता की बात है।
(प्रेम सिंह के फेसबुक वाल से साभार)
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