शालू शुक्ला
पाप मैं अकेला चला तो जाऊंगा, पर लेने आओगे ना? यह वाक्य नन्हे से आठ साल के बच्चे का होता है इस संवाद के बाद कभी अपने पिता के पास वापिस नहीं लौट पाता है. जी हाँ हम बात कर रहे हैं सिने स्टार इरफ़ान खान की फ़िल्म 'मदारी' की. इसकी कहानी शुरू होती है एक बच्चे के अपहरण से जिसका पिता दफ्तरों के फाइलों में गुम्म हुए बच्चें को खोजता खोजता भ्रष्ट व्यवस्था से तंग आजाता है. कहने को तो मात्र फ़िल्म है पर रोती हुई सरकारी व्यवस्था पर कड़ा तमाचा है. यह फिल्म कई सवाल खड़े करती है.
जनता सब जानती है पर फिर भी बहुत भोली है. सोचने समझने का वक़्त ही कहाँ दिया है. क्या-क्या समझे किस बात पर विचार-विमर्श करे. जैसे ही वो किसी मुद्दे पर भड़के, एक नया मुसीबतों का खांचा तैयार कर दिया जाता है, जिसमे फंसकर वो धोबी के कुत्ते के सामान 'न घर की हो पाती है, न घाट की. क्यूँ हक़ नहीं है हमें अपनी जरूरतों को अपने तरीके से पूरा करने के लिए फैसला लेने का? भारत भले ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश क्यों न बन गया हो पर क्या सच में यहाँ रहने वाला नागरिक इसका लाभ उठा पाता है? क्योंकि जब तक सरकारी मुलाज़िमो की जेब गर्म नहीं होंगी तब तक उनके कान पर जूं नहीं रेंग सकती. आज अमीर और अमीर, गरीब और गरीब होता चला जा रहा है. अमीरी और गरीबी की खाई बहुत तेजी से बढ़ रही है. विकास की सड़क पर तेज़ रफ़्तार से दौड़ने वाले देश को चलाने वाले गरीबों को भूखे पेट सोने पर मजबूर किया है.
गरीबी छोड़िये यह तो आम मुद्दा है इसकी तो जैसे आदत होगई हो इन्हें, पर जहाँ बात आती है व्यवस्था पर खड़े होने वाले सवालों की तो कुर्सियों तले ज़मीन हिलने लगती है. सत्ता में बैठे लोग बहुत चालाक हैं इसका भी तोड़ निकल लेते हैं कैसे? जी कानून व्यवस्था वही जिनके कंधे पर मुँह रखकर इनकी ज़ुबान चलती है.
यहाँ उद्देश्य राजनीती की बुराई करना तो नहीं पर उन लोगों को समझाना है जिन्हें देश के हित व अहित के लिए कार्य की अनुमति दी गयी है. राजनीति समझदरी से भी किया जा सकता है जहाँ हर व्यक्ति के मत को सुना जाये हर किसी का भला हो. आम जनता को बरगलाना, डराना, धमकाना और फिर भी न माने तो मार देना. क्या यही सिखाती है हमारी व्यवस्था? आज के समाज में बुरा करने वालों की तादाद कम है क्या जो अब हम भृष्ट तंत्र से भी जूझना सीख लें. भला मानस बस इन सबमे फंसकर न कुछ बोलने ही लायक रहता है और न कुछ करने लायक. सरकारी कार्यों पर उंगली उठाने वाले या तो जान से खेल जाते हैं या फिर बड़ा सा मुँह खुलवाकर उनका ईमान बिकाऊ करवा दिया जाता है.
बहर-हाल यह सब तो बदलने में समय लगे गा। सरकारी काम है भाई! टाइम लगता है तब तक क्यों न हम ही अपने कॉलर खड़े करलें, खुली आँखों से सोना बंद करदें, कड़वी सच्चाई को निगलना बंद कर उगलना शुरू करदें। अभिव्यक्ति की आज़ादी और क्या सिखाती है हमें, क्योंकि छेद तो आसमान में भी होगा, एक पत्थर भी जो तबियत से उछाला जाये। यह फिल्म सरकारी दफतरों की भ्रष्टाचारी व्यवस्था पर चोट करती है. इसे बहुत ही मार्मिक ढंग से फिल्माया गया है. लोकेसन भी बहुत मार्मिक है. आज की सरकारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार को समझने के लिए इस फिल्म को जरुर देखना चाहिए. कहानी के लिहाज से भी फिल्म बहुत दिलचस्प है.
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