Saturday, 17 September 2016

छात्र राजनीति भटकाव के रास्ते पर

 अवधेश पैऩ्यूली 


चुनाव लोकतंत्र का आधार स्तम्भ है. आजादी के बाद से भारत में चुनावों ने एक लंबा सफर तय किया, चाहे वह पंचायती चुनाव हो या फिर आम चुनाव. भारत में छात्र राजनीति विश्वविध्यालयीय शिक्षण व्यवस्था का अहम घटक रही है. जहाँ से छात्र लोकतंत्र का पाठ भीसिखते हैं. छात्र यहाँ से निकल कर लोकतंत्र में अपनी अहम् भूमिका निभाता है. आम मतदाता के रूप में या प्रत्याशी के रूप में जो शिक्षण का एक हिस्सा होता है. 

बीएचयू ( बनारस हिन्दू वि.वि.) संस्थापक मदन मोहन मालवीय ने 'छात्र और राजनीति' नामक लेख मे लिखा था कि 'जब तक राष्ट्र पर कोई बडा संकट न हो तब तक छात्रों को रीजनीति से दूरी ही रखनी चाहिए और अपना सारा ध्यान पढाई पर केन्द्रित करना चाहिए.' लेकिन भारत की आजादी के बाद कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में पढने वाले और आदर्श से भरे छात्रों ने मालवीय जी की इस राय से शायद ही कभी इक्तिफाक रखा हो.  विश्वविद्यालय की राजनीति सक्रिय राजनीति की पाठशाला के रूप मे ही विकसित होती रही. बीएचयू. के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष प्रो. आनंद प्रधान ने कहा है कि छात्र राजनीति में ये उबाल दरअसल छात्र राजनीति को कमजोर करने वाला साबित हुआ, क्योकि अपनी एकता के लिए जानी जाने वाली छात्र राजनीति में जाति-धर्म और छेत्रीय पहचान प्रमुख हो गये हैं.

वर्तमान समय मे जो छात्र राजनीति प्रकरण है देखकर लगता नहीं है कि आने वाले समय में भावी नेता राजनीति में सिद्धांतो के साथ न्याय कर पायेंगे. छात्र राजनीति में अक्सर बडे-बडे कद के बाउन्सर जिनके पीछे उसी कद काठी के बॉडीगार्ड वोट मागने आते हैं जिनकी भाषा में अक्खडपन, ज्यादातर हरयाणवी ठसक वाली होता है, बस जीत प्रथम ध्येय, भले ही वह छात्रों  से बडे-बडे वादे करके जाते हों पर जीतने के बाद तो छात्रों की उम्मीदें धरी की धरी रह जाती हैं. साल दर साल यही प्रक्रिया चली आ रही है जिससे राजनीति में विश्वसनीयता और रूचि का अंश ही समाप्त हो गया है, कारण राजनीतिक उदासीनता नहीं है पर मूल सिद्धांतों के साथ छेडछाड करना कहाँ तक सही.

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