शालू शुक्ला
इस बात में तो किसी को भी कोई संदेह नहीं होना चाहिए की ज़माना उसी को पूछता है जिसके पास आम लीक से हटकर कुछ नया हुनर हो। वैसे तो हुनर कई तरह के हैं, पर राजनीती की तो बात ही अलग है। अब आम नागरिक जो घर-गृहस्थी, आटा-दाल चावल में व्यस्त हैं क्या उनके बूते की यह राजनीति है? उसे तो बस अपना मत देना है जो उसका एक मात्र अधिकार है। राजनीति से छात्र-संघ चुनाव का मौसम याद आया, हाल ही में हुए छात्र-संघ चुनावों ने भी हर जगह अपनी अच्छी-खासी पैठ जमा रखी थी। जहाँ नज़र जाये वहीँ बस शोर-शराबा, दीवारों पर पर्चों की भरमार देखने की मिली, क्योंकि "भाई पैसा बहुत है, लगे रहो", लेकिन खूब पिटकर, गालियां खाकर भी डटे रहने वाले व्यक्ति और दबदबा ज़माने वालों में आम जनता कोई फ़र्क नहीं कर पाती उसके लिए तो सब बराबर हैं।
चुनाव के मौसम को बरसात की उपाधि देना गलत तो नहीं होगा क्योंकि हर साल चुनावों में मेंढक की भांति निकल कर उछलने वाले उम्मीदवार फिर शायद ही पुरे साल दिखते हैं। साहब देश के नेता तो और छात्र नेता एक जैसे हैं। राजनितिक पार्टियों के नेता आम जनता को बरगलाना जानते हैं। चिल्ला-चिल्ला कर अपना नाम इस प्रकार बोलते हैं, मानो इनके नाम के सिवा और कोई चुनावी उम्मीदवार के लिए उपयुक्त नाम ही नहीं है। पानी की तरह बहाये जाने वाले पैसे की इन्हें सुध भी नहीं होती, हज़ारों-लाखों रुपए के कार्ड, पोस्टर, पर्चे, बांटे जाते हैं, सड़कों पर, कॉलेज की दीवारों को उन्ही से सजाया जाता है। सोशल मीडिया, साइट्स आदि पर भी दुनिया भर के पोस्ट शेयर कर खुद को आम छात्रों के बीच पहुचाने की होड़ सी लगी रहती है। सवाल सिर्फ यही है खुद की पहचान बनाने के लिए पैसों की इतनी बर्बादी क्यों? अपनी कहूँ तो मैं अब द्वितीय वर्ष में हूँ। मुझे पूरा एक साल लग गया कॉलेज व्यवस्था से पूरी तरह रूबरू होने में इस बार के चुनाव भी जैसे पैसे व समय की बर्बादी मात्र ही थे। बड़ी विडम्बना है जहाँ मैं और मेरे जैसे अन्य बच्चे इन सबको समझने जानने की कोशिश में जुटे हैं। जिससे सही-गलत का निर्णय पूर्ण रूप से हो सके। वहीँ कुछ छात्र-छात्राएं क्रन्तिकारी बनने को तैयार हैं। ये छात्र नेता भी किसी बड़े नेता की भांति हाथ-जोड़कर हम से हमारा मत बेशक मांगते हैं पर जीत के बाद "मैं कौन तू कौन" करते पाये जाते हैं। राजनीति के विषय में दिलचस्प बात तो ये है कि आज राजनीती का पर्याय यही है।
छात्र-संघ चुनाव के दौरान उम्मीदवारों में होने वाली जोश की तो प्रशंसा करनी चाहिए, वे भी कम नहीं हैं। इतने सालों से चली आ रही इस व्यवस्था को अपने तरीके से बदलने का जूनून भी लाजवाब है। आखिरकार वे भी पैसा खिलाकर काम करवाने में विश्वास करते हैं क्यूंकि ,भाई पैसा बोलता है।
यहाँ तक की सबसे बड़ी विडंबना तो ये है कि इन्हीं में से कई छात्र कल को देश के नेता बनेंगे। क्या इन छात्रों से आने वाले समय में देश हित बदलाव करने की उम्मीद की जा सकती है या फिर वहां भी बस हवा में बात करने से ये अपना काम चलाते नज़र आएंगे? लेकिन शायद चल भी जाये इनका काम क्योंकि जनता तो सब जानते हुए भी चुप ही रहने वाली है, उसके पास तो मंथन करने का वक्त ही नहीं है। बहरहाल ये मुद्दा ही न खत्म होने वाली बहस का है। राजनीती एक के बाद एक तर्क के ज़रिये न खत्म होने वाले सिलसिले की भांति दिखाई पड़ती है। इतनी मेहनत के बाद चुनाव भी खत्म और उनके परिणाम भी आ चुके हैं। नेताओं ने भी अपने पद पर पूर्ण रूप से खुद को स्थापित कर लिया है जश्न भी बड़े जोरों-शोरों से आयोजित किया गया। अब अपनी मर्जी के मालिक ये नेता जब मन किया आते हैं, नहीं तो नहीं। कभी कभी आते हैं दिखने के लिए जिससे सब इन्हें याद रखे।
अंत में अब दुःख या परेशानी ज़ाहिर करने का फायदा तो है नहीं क्योंकि हर साल यही होता है और अब तो वे अपने-अपने पदों पर विराजमान हो चुके हैंI अब अगर कुछ हो सकता है तो उम्मीद की वे उतने ही जोश के साथ जितने जोश के साथ उन्होंने जीतने के लिए तैयारी की कॉलेज व्यवस्था में अपना सहयोग दें। आशा कर सकते हैं तो बस इतनी सी की वे पैसों को अपनी कैंपेनिंग का पैसा समझ कर बर्बाद न करें।
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