Sunday, 25 September 2016

लातूर के किसानो का दर्द

अमन आकाश 
 "मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती" सन् 1967 में आयी फिल्म उपकार के एक गाने ने गायक महेन्द्र कपूर को और गीतकार गुलशन बावरा को अमर कर दिया. यह वही दौर था जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली के रामलीला मैदान से "जय जवान जय किसान" का नारा दिया था.
  "मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती"
आज सोना-हीरा-मोती उगलने वाली हमारे देश की मिट्टी में ना जाने कितने लाख किसान और उनकी सन्ततियां दफ़न हैं! 1990 के बाद में "किसान आत्महत्या" की भयावह स्थिति बनी जो कि आज तक जारी है. प्रकृति की मार से पीड़ित इन किसान परिवारों के लिए सरकार भी धृतराष्ट्र बनी हुई है और मीडिया की भी संजय दिव्यचक्षु काम नहीं कर रही. 1990 में प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार "The Hindu" के ग्रामीण मामलों के संवाददाता पी. साईंनाथ ने किसानों की नियमित आत्महत्याओं की सूचना दी. आत्महत्या करने वाले किसानों में केवल छोटी जोत वाले किसान ही नहीं बल्कि मध्यम और बड़े जोत वाले किसान भी शामिल थे.
महाराष्ट्र का लातूर जिला, जो देश में तूर दाल का भाव तय करता आ रहा है, ने पिछले दिनों सदी के सबसे भयानक जलसंकट से पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा. गौरतलब है कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. विलासराव देशमुख का गृहनगर भी लातूर ही है. यहाँ हमेशा से जलसंकट रहा है. लातूर के जलसंकट पर शोध कर रहे अतुल दुलगांवकर का मानना है कि "लातूर में जलसंकट का मूल कारण बारिश का न होना है. पिछले पांच सालों से स्थानीय किसान बारिश की बाट जोह रहे हैं. इसी वज़ह से इस इलाके को पानी देने वाला मांजरा डैम भी सूखा पड़ा है."
"बैलों के गले में जब घुँघरू जीवन का गीत सुनाते हैं
ग़म कोसों दूर हो जाता है, खुशियों के चमन मुस्काते हैं"


18 सितंबर 2016 को लातूर जिले के उदगीर तालुका में हुए जल संचयन को लेकर हुए एक कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अमर हबीब ने बताया कि जब-जब किसान वर्ग की बात आती है सारे दल एक हो जाते हैं. किसानों को लोकपाल बिल की ज़रूरत नहीं है, बस Land Sealing Act, Essential Commodity Act और Land Acqusition Act को हटा दिया जाए. ये सारी बातें किसान हित में ज़ारी स्वामीनाथन रिपोर्ट में दर्ज है, जिसे केंद्र सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है. NCRB की एक रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या का पहला मामला 1986 में आया जो कि अब तक 302008 तक पहुँच गया है. उपरोक्त कार्यक्रम में ही बीड जिले के "शेतकरी आत्महत्या जांच कमिटी" के सदस्य डॉ. द्वारकादास लोहिया ने बताया कि आत्महत्या पीड़ित परिवार को मुआवजा स्वरूप 1 लाख की धनराशि दी जाती है, जिसका 70% हिस्सा डिपाजिट कर लिया जाता है. महाराष्ट्र सरकार ने 5 लाख रुपए देने की बात कही है जो अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुई है. उन्होंने ये भी कहा कि सरकार के पास फिलहाल ऐसी कोई नीति नहीं है, जिससे किसानों को आत्महत्या से रोका जा सके.
"सुनके रहट की आवाज़ें यूँ लगे कहीं शहनाई बजे
आते ही मस्त बहारों के दुल्हन की तरह हर खेत सजे"

बारिश ना होने की वजह से एकड़-की-एकड़ फसलें बर्बाद हो जाती हैं. स्थानीय किसानों ने अपनी बर्बाद सोयाबीन की फसल को दिखाते हुए कहा कि यहाँ की मिट्टी में बस आत्महत्या की फसल लहलहाती है.! हमारी सर्वे टीम ने जब उनसे बातचीत के दौरान बारिश का ज़िक्र किया तो एक पांच वर्षीय बालक ने बड़ी उत्सुकता से पूछा "ये बारिश क्या होती है?"
उस बच्चे का ये सवाल स्थिति की भयावहता को दर्शाती है.

"जब चलती है इस धरती पर हल, ममता अंगड़ाइयां लेती हैं
क्यों ना पूजे इस माटी को, जो जीवन का सुख देती है"

लातूर जिले के भिसेवाघोली गाँव की मोहिनी भिसे ने जनवरी 2016 में आत्महत्या कर ली. तीन बहनों में सबसे बड़ी मोहिनी को ये आशंका थी कि तीन-तीन बेटियों की शादी के बोझ तले दबे उनके किसान पिता कहीं आत्महत्या ना कर लें. इसी डर से उसने अपनी ही ज़िन्दगी ख़त्म कर ली. उपरोक्त मामले पर अमर हबीब का कहना था कि रोहित वेमुला हत्याकांड को दलित शोषण का नाम देकर राष्ट्रीय मुद्दा बनाया गया, इससे हमें ऐतराज नहीं है, लेकिन मोहिनी आत्महत्या भी मात्र एक व्यक्तिगत आत्महत्या नहीं थी. इसमें पूरे किसान समुदाय की पीड़ा छुपी है. इसे मीडिया में कहीं कोई जगह नहीं मिली. ना जाने इस तरह की कितनी मोहिनी हर वर्ष असमय मिट्टी में मिल जाती है और कहीं कोई ख़बर नहीं बनती!
"इस धरती पर जिसने जनम लिया, उसने ही पाया प्यार तेरा
यहाँ अपना-पराया कोई नहीं, सब पर है माँ उपकार तेरा"

अमर हबीब का कहना था कि किसानों को नेहरू पालिसी के समय से ही छलावे में रखा गया है. नेहरू कभी ये चाहते ही नहीं थे कि किसान और उसकी पीढ़ी किसानी से बाहर निकले. 19 सितंबर 2016 को लातूर शहर में अट्रोसिटी एक्ट के खिलाफ और मराठा आरक्षण के लिए एक विशाल रैली का आयोजन हुआ, जिसमें आश्चर्यजनक रूप से 13 लाख की बड़ी संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया. लेकिन जब भी बात "शेतकरी आत्महत्या" को लेकर होती है, आज तक कोई इकठ्ठा नहीं हुआ. पिछले 10 वर्षों में विदर्भ-मराठवाड़ा क्षेत्र से ढाई लाख से अधिक लोगों का विस्थापन हुआ है.
ये समस्या सिर्फ लातूर की ही नहीं है, विदर्भ-मराठवाड़ा के कई ऐसे इलाके हैं जहाँ "किसान आत्महत्या" महज एक आंकड़ा बनकर रह गयी है. कई सारी कमिटियों का गठन हुआ है, कई सारे वायदे किए गए हैं लेकिन आज भी वहां के किसान आँखों में मौत का खौफ़ और चेहरे पर प्रश्नवाचक चिह्न लिए जिंदा हैं! ये प्रश्नवाचक चिह्न सरकार के लिए है, जो अच्छे दिन लाने वाले थे. ये प्रश्नवाचक चिह्न समाज के लिए है, जिन्हें किसानों की ज़िन्दगी से प्यारा आईपीएल मैच है.!

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