शालू शुक्ल
अंग्रेजी ज़बान पर जब भी कभी राम नाम ,राधे नाम, या वाहेगुरु इत्यादि जैसे लव्ज़ सुनते हैं तो चेहरे पर एक धीमी सी मुस्कान उमड़ आती है. अध्यात्म के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित कर देना कोई इनसे भी सीख सकता है. गले में रुद्राक्ष, हाथों से ना थमने वाली तालियों की गूंज, कीर्तन की ढोलकी पर थिरकते पैर, जैसे मन मोह लेते हैं. मंदिरों, गुरुद्वारों के सत्संगों में झूमते सर, भारतीय संस्कृति, सभ्यता को सीखते हुए ये हमे भी आध्यत्म की तरफ खीचने लगते हैं. ईश्वर की आराधना करते, कपड़ों पर उनकी कृतियाँ, झटकते हुए लंबे बाल, माथे पर टीका या बिंदी, हाथों में कलावा, धारण किये हुए ये किसी साधू-संत की भांति महसूस करते हैं. क्लब-पब के जोर शोर में झूमते शरीर जब भजन पर थिरकते हैं तो कुछ उपयुक्त दर्शाये गए चित्र की भांति प्रतीत होता है.
यह विदेशी लोग जब मेरे दोस्त के कैमरे के आगे से गुज़रा तो उसने कहा सॉरी, हमने भी मुस्करा के उसके सॉरी का जवाब अंग्रेजी में इट्स ओके कहकर दिया. फिर हम वहां से जा ही रहे थे की देखा वो व्यक्ति कीर्तन की धुन पर झूम रहा था, देखकर आँखे तो आनंनदमय हुई, साथ ही हमारे चेहरे भी ख़ुशी से खिल उठे. भारत में विदेशियों को ताँता लगा ही रहता है. सभी के लिए यहाँ की चहल-पहल व भारतीय अध्यात्म एक दिलचस्प खेल स्वरुप है जिसे ये पूरी शिद्दत से जानते हैं, उसमे खो जाते हैं. हमारे समाज में मौजूद ये अनूठी व भिन्न आध्यात्मिक व्यवस्था सभी की आँखों का केंद्र बन जाती है. यहाँ अंधविश्वास करने वाले ढोंगियो से लेकर सच्चे भक्त भी है. त्योहारों के समय में चमचमाते बाज़ार उतने ही आकर्षित करते हैं जितने आज की पीढ़ी को मॉल करते हैं.
कहा जाता है कि हमारी संस्कृति खतरे में है पर इस सब को देख कर तो ऐसा नहीं लगता. क्योंकि हमारी संस्कृति, अध्यात्म एक नए पैमाने पर आगे बढ़ रहा है. अब अगर हम बात करे हिंदी भाषा की जो बुद्धिजीविओं के मुताबिक कमज़ोर पड़ती जा रही है. हिंदी भाषा ही एक मात्र ऐसी भाषा है जो इतने बदलावों को धारण कर नए स्वरुप में उभरने की क्षमता रखती है, फिर चाहे वो वास्तिवकता से परे ही क्यों न हो क्योंकि बदलाव से ही हम विकास करते हैं. सच तो ये है कि हमे इन्ही लोगों की श्रद्धा से काफी कुछ सिखने को मिलता है, हम अपने धर्म, संस्कृति , सभ्यता की ओर आकर्षित होते हैं, उससे जुड़ाव महसूस करते हैं इत्यादि.
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