Friday 23 December 2016

आज भी प्रासंगिक है सच्चर कमेटी की रिपोर्ट : कुलदीप नैयर

रंजना 

जस्टिस सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के 10 साल पूरा होने पर सोशलिस्ट  युवजन सभा (एसवाईएस), पीयूसीएल और खुदाई खिदमतगार ने दिल्ली में 22 दिसंबर को एक संगोष्ठी‍ का आयोजन किया। संगोष्ठी का मकसद यह जानना था कि कमेटी की सिफारिशों पर पिछले दस सालों में कितना अमल हुआ है। सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष डॉ. प्रेम सिंह ने संगोष्ठी का परिचय देते हुए कहा कि इस विषय पर यह संगोष्ठी् आगे की जाने वाली चर्चाओं की पहली कडी है। इसमें बुदि्धजीवियों और मुस्लिम समुदाय के प्रमुख संगठनों के नुमाइंदों को वक्ता‍ के तौर पर बुलाया गया था। बाद में विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के नुमाइंदों को भी बुलाया जाएगा। ताकि वे बता सकें कि उनकी सरकारों ने केंद्र और राज्य के स्तर पर सच्चर कमेटी की सिफारिशों को किस हद तक लागू किया है।



पहले सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के संदर्भ में कहा कि इस रिपोर्ट ने असलियत से पर्दा उठाने का काम किया है। मुस्लिमों को उनके अधिकार मिलें। आज के समय में मुस्लिमों की स्थिति बद् से  बद्तर हुई है। उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं हो रहा है। पहले राजनीति को मजहब से नहीं जोड़ा जाता था। मगर आज राजनीति पर मजहब हावी हो गया है। संविधान के तहत सभी समान है। हम सभी को अपना दिल टटोलना चाहिए कि हम कैसा समाज चाहते हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आज भी उतनी प्रासंगिक है जितनी वह पहले थी।



सच्चीर कमेटी के सदस्य रहे प्रो. टी.के ओमन ने कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट एक जाना-माना ऐतिहासिक दस्तावेज है। इस रिपोर्ट के जरिए मुस्लिम समाज के बहाने पूरी भारतीय समाज की झलक मिलती है। मनुष्य को जीवन जीने के लिए सिर्फ रोटी ही नहीं बल्कि समानता, सुरक्षा, पहचान और सम्मान भी चाहिए। आज अल्पसंख्यक समुदाय में जिन लोगों के पास भौतिक संसाधन मौजूद हैं उन्हें भी नागरिक के नाते सम्मान नहीं मिलता जिसके संविधान के तहत वह अधिकारी हैं। सुरक्षा की जब हम बात करते हैं तो हम शारिरिक हिंसा को ही हिंसा मानते हैं मगर हिंसा संरचनात्मक और प्रतीकात्मक भी होती है जिसे समझना अति आवश्यक है। मुसलमानों को इस तरह की हिंसा का अक्सर सामना करना पडता है। उदाहरण के लिए उन्हें बीफ खाने का वाला बताने का मामला मनोवैज्ञानिक और मानसिक उत्पीड़न का जीता-जागता उदाहरण है। मुस्लिम को शक की निगाह से देखा जाता है। हालांकि असमानता सभी समुदायों में देखने को मिलती है मगर जो असममानता किसी समुदाय विशेष का सदस्य होने से पैदा हुई हो यह एक बडी समस्या है।



सच्चयर कमेटी में सरकार की तरफ से ओएसडी नियुक्ते किए गए सईद महमूद जफर ने बताया कि मुस्लिम भारत में 14.2 प्रतिशत हैं। जो तमाम अल्पसंख्यक समुदायों के 73 प्रतिशत हैं। अनुच्छेद 46 में समाज के कमजोर वर्गों को विशेष देखरेख का प्रावधान है। सच्चर कमेटी की रिर्पोट के अनुसार मुस्लिम समाज सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर खासा पिछड़ा हुआ है और 2006 से इनका स्तर नीचे गिरता जा रहा है। कमेटी की सिफारिशों में से अब तक मात्र 10 प्रतिशत ही लागू किया गया है। इसका एक बडा कारण प्रशासनिक पदों पर मुस्लिमों का नामात्र का प्रतिनिधित्व भी है।



जमीयत उलेमा ए हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने कहा कि आज मुसलमानों के प्रति समाज में विश्वास खत्म होता जा रहा है। सामाजिक तौर पर आज वह अलग-थलग पड़ गए हैं। मुसलमान होना आज खतरे का निशान बन चुका है। हमें मुस्लिम बच्चों व युवाओं की तालीम पर ध्यान देना चाहिए तथा सरकार और मीडिया को भी इस मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए।



दूसरे सत्र के अध्यक्ष प्रो. मनोरंजन मोहंती ने कहा कि अल्पसंख्यकों समेत सभी वंचित समूहों के बारे में विधिवत अध्ययन और काम होना चाहिए। सबको अलग-अलग रख कर फुटकर काम करने से कार्य व्यवस्थित और नियमित नहीं हो पाता। अखबार, किताब और पत्रिकाओं पर नजर डाली जाए तो मुस्लिमों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। अल्पसंख्यकों के हित असुरक्षित होने पर हिंसा बढ़ती है। जब अधिकार सुरक्षित होते हैं तो उनके प्रतिनिधित्व के जरिए समाज में बदलाव आता है।



जमाते इस्लािमी हिंद के प्रधान महासचिव डॉ. सलीम इंजीनियर ने कहा कि सच्चर कमेटी की सिफारिश से पहले भी कई सिफारिशें की गई मगर यह अलग और अनूठी रिपोर्ट है, वास्तविक है, जमीनी स्तर पर काम किया गया है। क्या कारण है कि ऐसी चर्चित रिपोर्ट के बावजूद अल्पसंख्यकों की वास्तविक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आ रहा है? इसके पीछे का कारण है सरकार और राजनैतिक पार्टियों की नीयत में खोट और प्रतिबद्धता की कमी। भारतीय जेलों में सबसे ज्यादा संख्या में अल्पसंख्यक मौजूद हैं जिनमें 85 प्रतिशत मुस्लिम हैं। सबका साथ सबका विकास एक भावनात्मक जुमला है, वास्तविकता इसके उलट है। देश लोकतंत्र से फासीवाद की ओर बढ़ रहा है। देश की पहचान विविधता और बहुलता से है नाकि हिंदू राष्ट्र से।



वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली ने कहा कि इस रिपोर्ट पर मुसलमानों के तुष्टीकरण का आरोप लगता रहा है। मधु लिमय जी ने एक जन सभा को संबोधित करते हुए एक सवाल खडा किया था कि मुसलमानों का तुष्टीकरण कहां हो रहा है? क्या वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक स्तर पर हुआ है? आपकी मानसिकता भेदभावपूर्ण है तो आप भलाई का काम नहीं कर सकते। यह भेदभाव सामाजिक ही नहीं, सरकारी स्तर पर होता है। उन्होंने याद दिलाया कि 1950 का वह परिपत्र अभी तक नहीं बदला गया हे जिसमें संवेदनशील पदों पर मुसलमानों को नहीं रखने की बात लिखी गई है।



पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर ने कहा कि तुष्टीकरण का आरोप एक गलत सोच का नतीजा है। जब हिंदू पर्सनल लॉ है तो मुस्लिम पर्सनल लॉ पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। विविधता भारत की पहचान है। यूनिफार्म सिविल कोड के लागू करने के पीछे सबकी समानता का विचार न होकर, मुस्लिमों की पहचान खत्मभ करने की मंशा है। उन्होंॉने स्वीपकार किया कि सच्चनर कमेटी की सिफारिशों पर कांग्रेस की सरकारों ने भी वाजिब काम नहीं किया। इन सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिए। 



जमीयत उलेमा ए हिंद के सचिव हकीमुद्दीन कासमी ने कहा कि मुसलमानों को खुद पहल करके सबके साथ मिल कर अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए। डर और निराशा की मानसिकता को छोडना चाहिए। हिंदुस्तारन के समाज में और भी समुदाय हैं जिनके साथ भेदभाव होता है। सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर आगे भी चर्चा जारी रहनी चाहिए। जमीयत उलेमा ए हिंद के दिल्ली प्रांत के सचिव जावेद कासमी ने कहा कि पराजय या किसी से बदले की भावना से काम नहीं करना चाहिए। सभी वंचित तबकों को मिल कर अपने समुदाय और देश की तरक्की का काम करना चाहिए। 



डॉ प्रेम सिंह ने सत्र के अंत में निष्कर्ष वक्तव्य देते हुए कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट केवल आंकडे़ नहीं देती बल्कि सभ्य समाज के क्या तकाजे हैं, एक सभ्य समाज के रूप में भारत को दुनिया में कैसे रहना चाहिए उसकी जानकारी देती है। इस कमेटी की सिफारिशों पर अमल बहुत कम और वादे बहुत ज्यादा हुए हैं। हमें एक समतामूलक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष समाज की ओर बढ़ना चाहिए था मगर नतीजा उसके उलट है। ऐसा क्यों हुआ कि आजादी के संघर्ष में अंग्रेजों का साथ देने वालों को आज न केवल राजनीति में, बल्कि समाज में स्वीकृति मिल गई है। अंग्रेजों के साथ आने वाली साम्प्रदायिकता जो पहले शहरों के कुछ कोनों तक
सीमित थी वह आज गांवों-कस्बों  यहां तक कि आदिवासी समाज तक पहुंच चुकी है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि सारे संस्थान सेकुलर लोगों के हाथ में होने के बावजूद साम्प्रदायिक ताकतों को आज इतनी ज्यादा जगह मिल गई है? हमें आत्मालोचन की भी जरूरत है। 1991 में लागू की गई नई आर्थिक नीतियों की मार्फत देश पर नवसाम्राज्यवादी गुलामी थोप दी गई। उसी का नतीजा आज के हालात हैं। आरएसएस विरोधी उसके पुराने एजेंडे को दोहराते रहते हैं। जबकि उसने तकनीक द्वारा विचारधारा को नष्ट करने का नया एजेंडा चलाया हुआ है। हम व्यावहारिक और सैद्धांतिक स्तर पर नए नजरिए से एकजुट होकर काम करेंगे तभी समतापूर्ण सभ्य समाज बना पाएंगे। उन्होंने संगोष्ठी की तरफ से प्रस्ताव रखा जिसे स्वीेकार किया गया। प्रस्ताव में सच्चर कमेटी की सिफारिशों के आधार पर मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों को अनारक्षित करने और समान अवसर आयोग बनाने की मांग की गई। (प्रस्ताव की प्रति अंग्रेजी में संलग्ना है।) 



वक्ता ओं का स्वागत डॉ अश्विनी कुमार और धन्यवाद ज्ञापन फैजल खान ने किया। पहले सत्र का संचालन एसवाईएस की राष्ट्रीय महासचिव वंदना पांडे और दूसरे सत्र का संचालन डॉ हिरण्य हिमकर ने किया।   

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