Thursday 26 January 2017

क्या महिला सशक्तिकरण की सचाई

अपूर्वा सिंह
'महिला सशक्तिकरण' सुनते ही हमारे मन में उन महिलाओं का ख्याल आता है जो आज किसी न किसी बड़े पद पर आसीन हैं। जिसमे इंदिरा नूई, किरण बेदी, सुमित्रा महाजन, किरण मजूमदार, चंदा कोचर और न जाने ऐसी कई महिलाएं हैं। लेकिन जिन महिलाओं के नाम हम अपनी उँगलियों पर गिन रहे है वह केवल मुटठी भर हैं। मुद्दे पर आने से पहले हमें सशक्तिकरण का अर्थ समझना होगा। सशक्तिकरण का अर्थ केवल एक ही वर्ग का सशक्त होना नहीं होता, बल्कि पूरे समूह, पूरे समाज में जितनी महिलाएं हैं उन सभी का सशक्त होना है। एक महिला सशक्त तभी कहलाती है जब वह आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, सांस्कृतिक तौर पर सशक्त होती है। महिला सशक्तिकरण की डींगे हांकने वालो को जानना होगा कि एक दिन में देश में कम से कम 670 महिलाएं प्रताड़ित होती हैं। हर 20 मिनट में बलात्कार का एक केस थाने में रजिस्टर होता है।अगर उनकी नज़रों में यही महिला सशक्तिकरण है तो हाँ, महिला सशक्तिकरण हो रहा है और ज़ोरों शोरों से हो रहा है ।जहाँ पर महिलाओं का एक वर्ग तरक्की कर रहा है तो दूसरी ओर दूसरा वर्ग न जाने कितनी मुश्किलों का सामना कर रहा है ।
सरकार द्वारा योजनाएं तो बनायीं जाती है और लागू भी की जाती है परंतु उन योजनाओं का फायदा कुछ ही महिलाओं को होता है । वीमेन हेल्पलाइन नंबर, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ,स्वाधार जैसी न जाने कितनी योजनाएं आयी और चली गयी परंतु महिलाओं के विरुद्ध अपराध न कम हुए थे और न कम हुए हैं। 16 दिसम्बर को हुए दिल्ली बलात्कार कांड के बाद दुनियाभर में यह सवाल गूंजा कि क्या भारत में महिलाएं सुरक्षित हैं? उतना ही तीखा था ये सवाल कि क्या देश की राजधानी दिल्ली महिलाओं के लिए
सबसे असुरक्षित शहर है? एक ट्रेवल वेबसाइट के सर्वे में  84 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि दिल्ली सबसे असुरक्षित शहर है, वहीँ मुम्बई में वे खुद को ज्यादा सुरक्षित मानती हैं।
निर्भया कांड के अगले कुछ महीने सरकारी वादों और आम लोगों के नेक इरादों के नाम रहे, लेकिन उस घटना के करीब चार साल बाद अब जो सवाल मुझे सबसे ज्यादा परेशान करता है वो है कि क्या दिल्ली कभी भी महिलाओं के लिए एक सुरक्षित शहर बन पाएगा? जहाँ पर आज की नारी राजनीति, कारोबार,कला तथा नौकरियों में पहुँचकर नए आयाम गढ़ रही है वहीँ पर दूसरी ओर वही महिलाएं कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर प्रताड़ना का शिकार होती हैं। स्त्री और मुक्ति आज भी नदी के दो किनारों की तरह हैं, जो कभी मिल
नहीं सकती। जब-जब स्त्री अपनी उपस्तिथि दर्ज कराना चाहती है तब-तब जाने कितने रीती-रिवाजों,परम्पराओं की दुहाई देकर उसे गुमनाम जीवन जीने पर विवश कर दिया जाता है। इस सन्दर्भ में युगनायक स्वामी विवेकानंद का यह कथन उल्लेखनीय है-"किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है वहां की महिलाओं की स्थिति"। यह बात एक स्त्री और पुरुष को समझनी होगी कि ये दोनों एक दूसरे के पूरक है प्रतिद्वंन्दी नहीं। जिस दिन घर की खाने की डाइनिंग टेबल पर एक मुखिया की कुर्सी एक पुरुष की न होकर बल्कि एक महिला और एक पुरुष दोनों की होगी उस दिन शायद बराबरी होगी।

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