Monday, 30 January 2017

बदहाल भारत और बेरोजगार युवा

अपूर्वा सिंह
68वें गणतंत्र दिवस पर अपने घर में लगे भारत के मानचित्र को देखकर कहीं न कहीं गर्व सा महसूस होता है। जब देश के तिरंगे को खुले नीले आसमान में लहरता देखती हूं तो एक सुकून सा मिलता है। मौजूदा सरकार की उपलब्धियां जब उन्ही के मुँह से सुनती हूँ तो स्वामी विवेकानंद जी का 'विश्वगुरु भारत' का सपना साकार होता सा नज़र आता है। खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं जब महान हिमालय से रक्षित तथा पवित्र गंगा से सिंचित हमारा भारत देश देखती हूं।
परंतु, जब उस कमरे से बाहर निकलती हूँ और नेहरू प्लेस की फुटपाथ पर अपने ही देश के गौरव, अपने ही देश के भविष्य को चंद पैसों के लिए हाथ फैलाते देखती हूं तो एहसास होता है कि हाँ अब हमारी सोने की चिड़िया बूढ़ी हो चली है. 60 प्रतिशत युवाओं वाला देश अब बूढा हो गया है। देश की राजधानी की सड़कों पर आये दिन जब महिलाओं का शोषण,बलात्कार जैसी खबरों को पढ़ती हूँ तो सर शर्म से झुक जाता है । सरकार द्वारा अनेकों योजनाएं चलायी जाती है परंतु वह केवल कागजों तक ही सीमित रह जाती है । सरकारें बदलती है ,मौसम बदलते है,साल बदलते है लेकिन आम जन के हालात टस से मस नहीं होते। और सबसे हास्यास्पद बात यह है कि इन् सबके बावजूद भी सरकार ये कहने से नही चूकती की " देश बदल रहा है" । मंगल तक चले गए हम लेकिन आज भी हमारे हाथ में केवल मंदिर की घंटी ही नज़र आती है ।
विकास का असल बैरोमीटर तो लोगों के जीवन स्तर में सुधार से ही मापा जाता है। अगर देश सचमुच में विकास कर रहा है तो देश का पेट भरने वाला किसान भूखा क्यों है?देश का युवा वर्ग निराश क्यों है?क्यों आये दिन महिलाओं की इज़्ज़त सरेआम नीलाम होती है?क्यों एक नाबालिग हाथ फैलाने पर मजबूर होता है? हादसों के बाद के कुछ दिन तो देश सुधार और नयी नयी योजनाओं की कॉपी भरने में जाते है और कुछ दिन अलग अलग मुआवजों के ऐलान में।  असल बात तो यह है कि अब उस कमरे से बाहर निकलने की ज़रूरत है। ज़रूरत है उन मोमबत्तियों को भूलने की जिन्हें हर हादसों के बाद जलाया जाता है । अब जरूरत है खुद आगे आने की। जरूरत है अब सोच बदलने की । समय लगेगा बेशक समय लगेगा परन्तु बदलाव जरूर आयेगा और जल्द ही आयेगा क्योंकि जब जब देश की सोच बदली है तब तब देश की किस्मत बदली है।


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