Tuesday, 18 April 2017

किसानों का कर्ज़ माफ़ी समाधान नहीं

आशीष दत्त
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने करीब 30,729 लाख करोड़ किसानों का कर्ज़ माफ़ किया। जिनका कर्ज़ माफ किया गया वे लघु व सीमांत किसान की श्रेणी में हैं। यहाँ दो बातें सामने आती है, पहली बात क्या सरकार बड़ी जमीनों पर या बड़े कर्ज लेने वाले किसानों को गरीब नहीं मानती? दूसरा बात यह है कि प्रत्येक किसान का 1 लाख का कर्ज माफ़ करने से क्या उसके हालात सुधर पायेंगे? दरसअल, यहाँ हमें हालातों को गहराई से समझना होगा कि किसानों के सामने ऐसी क्या समस्याएँ हैं जिनसे हर साल उनके हालात पहले से खराब दिखते हैं। देखा जाये तो भारत के लगभग 17-18 राज़्यों की जमीनें उपजाऊ नहीँ हैं, जिससे किसानों के सामने करो या मारो की स्थिति रहती है। राजनीतिक पार्टियों ने किसानों की स्थिति पर जमकर मतलबी वाली राजनीति की है। हर 5 सालों में किसानों की स्थिति सुधार के नाम पर वोट मांगे गए हैं। इन सब के बाद अब हालात कैसे हैं इसका नमूना आप पिछले करीब 1 महीने से दिल्ली के जंतर मंतर में आंदोलन कर रहे किसानों की हालत देखकर पता लगा सकते हैं। वह लोग कभी मुँह में चूहे रखकर, तो कभी खोपडी का कंकाल लेकर अपना विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। कहीँ पानी, कहीँ ठेकेदार तो कहीं सूखी ज़मीन किसानों का रोजाना इन्हीं समस्याओं से पाला पड़ता रहता है। सरकारों की तरफ से किया हुआ काम चाहे वह बिचौलिया का रहना हो, काम की क़ीमत का मूल्य कितना होगा तय करना हो जैसी बातें हो। ऐसी स्थिति को सुधारने के लिये अनेकों कृषि और कल्याण की योजनाओं पर काम किया गया है लेकिन केवल कागजों पर इसका असर दिखा। 

राजीव गांधी का दिया गया संसद में बयान "अगर सरकार गरीबों के लिए 10 रुपए भेजती है तो सिर्फ 1 रुपए ही उन तक आ पाता है" याद आता है। किसानों को लेकर सभी ने राजनीति की। लेकिन किसी राजनीतिज्ञ से किसानों को फायदा मिला इस प्रश्न पर किसान का जवाब ना होता है। किसानों को लेकर पहल तो 1970 के दशक से ही शुरू हो  चली थी। उसका उदहारण हमें इंदिरा गांधी द्वारा समर्पित डीडी किसान चैनल की शुरुआत से दिखी और वर्तमान सरकार द्वारा कृषि मंत्रलाय का नाम बदलकर कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय रख दिया गया। वहीं दूसरी ओर 10 अप्रैल को चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे हो गये। यह महात्मा गांधी का किसानों के साथ-साथ पूरे भारत को जगाने का पहला आंदोलन था। गांधी जी ने 1917 में इस आंदोलन की नींव रखी थी। चंपारण सत्याग्रह 'तीन काठिया' को खत्म करने के लिए शुरू किया गया था। तीन काठिया में किसानों को अपनी जमींन के पूरे भाग में से तीसरे भाग पर नील की खेती करनी पड़ती थी लेकिन विश्व बाजार में नील की खेती का दाम ब्रिटिश सरकार को ज्यादा मिल पाने के कारण किसानों पर इस खेती का कर्ज बड़ा दिया गया।अतः सरकार को यह आदेश वापस लेना पड़ा। हमारे देश के सबसे खुश मिज़ाज़ रहने वाले किसानो में से सबसे ऊपर पंजाब के किसानों का नाम आता था। लेकिन परिस्थितियों ने पंजाब में भी किसानों की आत्महत्या की कहानी हमारे सामने प्रस्तुत कर दी है। राष्ट्रीय आपराधिक ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक साल 2015 की तुलना में साल 2016 में किसानों की आत्महत्या में 2% की बढ़ोतरी हुई है। किसानों की मृत्यु दर जो पहले 2014 में 12,306 थी वह अब 2015 में 12,602 हो गयी है।

यह साधारण सा आंकड़ा सच्चाई हमारे सामने बयां करता है। वहीँ दूसरी ओर खेतिहारी मजदूरों की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है। यह वही मजदूर हैं जो किसानों पर निर्भर हैं। अर्थात किसानों की अच्छी आमदनी ही इनके सुख का पैमाना है। किसानों की स्थिति पर  अगर अन्य राज्यों की बात करते हैं तो कर्नाटक में किसानों की मृत्युदर (15679), तेलंगाना (14000), मध्य पदेश(1290), छत्तीसगढ़(954), आंध्र प्रदेश(916) रही है। इसमें कही न कही हम कह सकते हैं कि मीडिया की भी रूचि किसानों के प्रति थोड़ी निंदाजनक है क्योंकि हमेशा हमारे पास किसानो के हालातों की रिपोर्टिंग आत्महत्या के बाद की ही होती है। ज्यादातर चुनावों के समय सबकी राजनीतिक पार्टियों के  अगले मेनिफेस्टो में किसानो के प्रति सबकी संवेदना होती है लेकिन सरकार बनाने के बाद स्थिति में कोई गौर नहीं करता।

आज वर्तमान समय में कितने किसानों के मुद्दों को मीडिया अपने प्राइम टाइम में जगह देती है ? किसानों को लेकर आने वाले समय में केंद्र व राज्य सरकार मिलकर कुछ नई योजनाएँ लाने  की तयारी में है ऐसी कुछ खबरें आ रही है। किसानों के प्रति सरकारों के अच्छे  रुख की उम्मीद एवम इंतज़ार करना चाहिए। हम सिर्फ योजनाओं को काग़ज़ पर नहीँ क्रियान्वयन पर देखना चाहते हैं।

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