बिपिन बिहारी दुबे
संदीप
लाखागुड़ा, झाड़ोल के रहने वाले गैरीलाल वढेरा का सबसे
छोटा बेटा है. जिसकी उम्र अभी महज 3 साल है. गैरीलाल एक किसान है. जिसका प्रभाव संदीप पर भी पड़ता है. संदीप अपने खेत तैयार करता है. उसमें पानी ले जाने
हेतु नालियाँ बनाता है. नालियों पर पूल बनाता है जिससे गाड़ी या
साइकिल आये तो नालियों टूटे नहीं. फिर लोटा में पानी लाना नालियों की मजबूती
को जांचना और दुरूस्त करना. ऐसे खेत, नाली, फसल वह दिन में कई बार लगाता है और उसे खराब करता है. ऐसे कई विधाओं का जानकार संदीप पहले
दिन पास के विद्यालय में पढ़ने जाता है. वहाँ उसे नए नियम कायदे सिखाए जाते हैं. और अनुशासन बनाने के नाम पर गुरूजी एक थप्पड़ रसीद कर देते हैं. संदीप रोता हुआ घर भाग आता है. पीछे-पीछे उसकी बहन रंजना आती है. रंजना से बचने के डर से वह पानी के हौद पर चढ़कर भागने का प्रयास करता
है. और उसमें फिसल
कर गिर जाता है.
रंजना के शोर मचाने के बाद उसका चचेरा भाई नंदू आकर उसे बाहर निकालता है. संदीप पानी से बाहर तो निकल जाता है
लेकिन विद्यालय जाने के नाम का डर उसके अन्दर से नहीं निकलता. संदीप के साथ हुई इस घटना से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. क्योंकि
मैं भी विद्यालय में अपने पहले दिन छड़ी से बेतहाशा पिटा था. और उसके बाद अगले 4
साल तक मैं विद्यालय के रास्ते पर नहीं गया. न जाने कितने बच्चों के पहली बार विद्यालय जाने का अनुभव संदीप और
मेरे जैसा होता है. वे फिर मुड़कर विद्यालय की तरफ नहीं लौटते. लौटते हैं तो सहमे हुए होते हैं. जिसका प्रभाव उनके मानसिक और शैक्षिक
विकास पर पड़ता है. राजस्थान
के इस सुदूर आदिवासी इलाके में सरकारी विद्यालय की सबसे बड़ी समस्या ड्राप आउट, कम उपस्थिति या अनियमित उपस्थिति का प्रमुख
कारण यह भी है.
जिसको नजरंदाज कर शिक्षक अपनी तरफ से कई कोशिश करते हैं
कि बच्चे रोज आएं. उनके
घर जाने से लेकर कई तरह के प्रलोभन और डर आदि का सहारा लेते हैं. फिर भी स्थिति बहुत ज्यादा नहीं सुधरती. अंत में दोष माता-पिता और सामाजिक परिस्थितयों पर मढ़ना ही एक मात्र उपाय बचता है.
यह किस्सा सिर्फ राजस्थान का नहीं है
बल्कि कमोबेश पूरी भारतीय शिक्षा व्यवस्था ही इसी ढर्रे पर चल रही है. हमारे यहाँ शिक्षा की शुरुआत ही कुछ इस
प्रकार होती है कि हम बच्चे की मौलिकता को नष्ट कर पहले दिन से ही नए साँचे में
गढ़ने का प्रयास कर देते हैं. विद्यालय
आने से पहले के 3-4 सालों
में बच्चे ने क्या कुछ सिखा उसका कोई महत्व नहीं रह जाता है. विद्यालय में आते ही उसे अक्षर, शब्द, गिनती, पहाड़े के जाल में फासने का कार्य शुरू
कर दिया जाता है. पढ़े-लिखे लोगों के समाज में बच्चे के पास
कोई विकल्प नहीं बचता तो धीरे-धीरे
वह इसका आदी हो जाता है. विद्यालय
में पढ़ाए गए शब्द की परिभाषा उसके लिए ‘’अक्षरों के मेल’’ तक
सिमित रह जाती है. ‘अपनापन’, ‘संवेदनशीलता’ जैसे शब्द उसके आँखों के सामने से रोज गुजरते हैं. पर आँखों में भाव बनकर नहीं उभर पाते
हैं. इसलिए वर्तमान
शिक्षा प्रणाली से उत्पन्न हुई पीढ़ी अनपढ़ लोगों से ज्यादा खतरनाक होती जा रही है.
जहाँ परिवार के लोग पढ़े लिखे नहीं होते
खासकर इस आदिवासी क्षेत्र में जिसकी पहली पीढ़ी पढ़ने जा रही है. वहाँ बच्चा अन्य कई उपाय तलाश लेता है. विद्यालय न आना, आना तो भाग जाना आदि कई. माता-पिता
अनपढ़ होने के कारण शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझ पाते तो गुरूजी को एक जवाब पकड़ा
देते हैं. ‘’मास्टर साहब ये
जाए नहीं तो मु काई करूँ?’’ मास्टर
साहब निराश लौट जाते हैं. या
सरकारी दबाव में एक दो प्रयास मारते हैं. सरकार विद्यालय के कम नामांकन को आधार मानते हुए विद्यालय को बंद कर
देती है या उसे किसी अन्य माध्यमिक या उच्च माध्यमिक विद्यालय के जोड़ देती है. इसका शिकार ज्यादातर प्राथमिक विद्यालय
होते हैं.
गाँधी फ़ेलोशिप के 9 महीने के सफ़र में संदीप जैसी
कई कहानियाँ सुनने को मिली. हमने इसके विकल्पों पर विचार किया और समाधान के रूप
में नाटक और कला के माध्यम से बच्चों को शिक्षा और उसके मूल्यों से जोड़ने के
प्रयास किया. इसके प्रथम प्रयोग में हमने अलग-अलग गाँव के 14 बच्चों को बुलाया और
उनके साथ हमने ‘’महिषासुर मर्दिनी’’ नाटक तैयार किया. इसकी सबसे पहली सफलता हमें
यह मिली कि लगातार 10 दिन तक बच्चे लगभग 10 किलोमीटर का सफ़र तय कर झाड़ोल हमारे पास
आए. हमारे साथ 6-7 घंटे मेहनत और जरुरत के अनुसार दो रात रुके भी. बच्चों की इच्छा
को देखकर माता-पिता ने भी भरपूर सहयोग किया. जब उस नाटक को हमने उनके गाँव में
प्रस्तुत किया तो बच्चों के साथ-साथ माता-पिता में भी आत्मविश्वास बढ़ा. इस नाटक के
माध्यम से हमने बच्चों को एक दुसरे के प्रति संवेदनशीलता और सम्मान, टीम भावना,
सुधारात्मक सुझाव, जैसे जरुरी मुद्दों पर खुलकर बातचीत भी किया. दस दिन में मिले
साकारात्मक परिणाम से यह स्पष्ट हो गया है कि बच्चों के प्रति संवेदनशील होना बहुत
आवश्यक है. जो कि परम्परागत और पेशेवर शिक्षा व्यवस्था में लगभग मिटती जा रही है.
अगर शिक्षा के धरातल पर समयानुसार साकारत्मक प्रयोग नहीं हुए तो न जाने देश के
कितने संदीप विद्यालय जाने से पहले ही उससे दूर भाग जायेंगे. और जो वापस आये भी तो
शिक्षा के मूल अर्थ को नहीं समझ पाएंगे.
No comments:
Post a Comment