शालू शुक्ला
सपना चमड़िया की डायरी 'रोज वाली स्त्री' जो एक स्त्री के बारे में है जो रोज़-मर्राह की ज़िंदगी के किस्सों और खुद के स्त्री होने के जाल में इस कदर फंसी हुई है कि इन बंदिशों से आज़ाद होना होना चाहती है, लेकिन इन बंदिशों से उसका आज़ाद होना बेहद मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं। हमारा परिवार बचपन से ही जबसे एक बिटिया का जन्म होता है उसे उसके स्त्री होने का एहसास दिलाने का एक भी मौका नहीं छोड़ता। फिर वो उसे खेल स्वरुप गुड्डे-गुड़िया देना हो, किचन सेट देना हो या फिर घर-घर खेल खेलने तक सीमित करना हो। अगर थोड़ी बड़ी हुई तो घर के काम-काज़ में उसे झोंकना बहुत ज़रूरी है, नहीं तो पराये घर जायेगी तो नाम डुबायेगी। स्त्री-विमर्श के विषय में ये किताब एक बेहतर पहल में से एक हैै जिसमें उसके घर से ही उसके सारे अधिकारों का हनन होने की शुरुआत होती है और सबको दिखाई भी पड़ती है लेकिन उसे इसका आभास भी नहीं होता। वो तो इसे आदत, ज़रूरत और विधि का विधान मानकर अपने औरत होने के कारणों को मजबूरी समझ क़ुबूल कर लेती है।
किसी ने सोचा है कि क्यों वो शाम को 6 बजे रेलिंग पर खड़ी ये सोचती है कि शाम को खाने में क्या बनाउंगी? उसे सबके खाने की चिंता होती है और उसका खुद का गुज़ारा बासी खाने पर भी हो जाता है।अगर वो काम भी करती है तो काम के साथ-साथ क्यों उसे अपने घर की चिंता कि बच्चों ने खाना खाया, घर की सफाई, खाना बनाना, कपड़े धोने इत्यादि ख्यालों से जूझना पड़ता है? क्यों वो आज़ाद ख्यालों की होकर भी शादी के बाद बोन्साई हो जाती है? घर की बहुएं यूँ तो लाज करती पायी जाती हैं बड़ों से, लेकिन वही जब उनसे दूर होते हैं तो छुप-छुप कर उस घूंघट से आज़ाद होने की माँग क्यों करती हैं। किसी घरेलू स्त्री से जब पूंछा जाता है तुम क्या करती हो तो क्यों उसे दबी ज़बान में कहती है कि वो घर चलाती है। क्या घर चलाना आसान है? क्यों घर चलाने में उसकी सालों की भूमिका पर सन्देह किया जाता है? बुद्धिमान स्त्रियों का हमेशा से ही ये पुरुष प्रधान समाज बहिष्कार करता आया है क्यों? पुरुष की बिस्तर की ज़रूरतों के समय ही उन्हें अपनी पत्नी हसीं लगती है और वो पत्नी जब कभी आज़ाद ख़यालों की बात कर के उसका हाथ थामें तो वो उसे दुत्कारने लगता है, आखिर क्यों? क्या उस स्त्री को प्यार करने का, सपने देखने का हक़ नहीं? वो बारिश के मौसम में क्यों किचन में चाय-पकोड़े तलते पायी जाती है, क्या उसकी इच्छा नहीं होती उस बारिश में नहाने की दो पल खुद के लिए जीने की? कीर्तन पूजा पाठ में वो किस के लिए नाचती है क्या वो सच में उस ईश्वर के लिए नाचती है जो उसकी इस हालत पर बेहरम हुआ है या फिर दो पल के लिये वो खुद को खोजती है उन भजनों में? पैदा होते ही ये समाज एक इंसान को इंसान होना नहीं पहले उसे ये बताया-सिखाया जाता है कि वो क्या है और उसे क्या करना है उसके कर्तव्य क्या हैं? वो स्त्री पहले है चाहे जहां भी हो घर, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, इत्यादि।
इस तरह के कई सारे सवाल, विचार, सच्चाईयां, इच्छाएं लेखिका ने कुछ अपने जीवन से कुछ आस-पास के महिलाओं के जीवन से चुराकर सँजोये हैं जिन्हें जानना-पढ़ना न सिर्फ एक स्त्री के लिए लेकिन एक पुरुष के लिए भी बहुत ज़रूरी है। इससे ये होगा कि स्त्री जहां एक ओर अपने इस जीवन से दो पल आज़ाद होने की नयी ख्वाहिश कर नए सिरे से जीवन की शुरुआत करने के लिए प्रेरित होगी वहीँ दूसरी ओर पुरुष सदियों से जिसे अपना हक मानते आ रहे हैं वे शायद दो पल ठहर इस विषय को समझ अपने व्यवहार में बदलाव ला पायंगे। ये किताब हर वर्ग के लिए एक सार्थक प्रयास है जिससे स्त्रियों के बेहतर जीवन की कल्पना की गयी है।
पुस्तक : रोज वाली स्त्री
लेखिका : सपना चमड़िया
प्रकाशन : सम्भव प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य : ₹80
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