Tuesday, 26 September 2017

आँखे खोल कर देखो सब यहीं है।

शालू शुक्ला 

यह सब अक्सर यूँ ही सड़कों पर बसों में होता देखा जाता था, पर आजकल तो शिक्षण संस्थानों ने भी भयावह रूप ले लिया है। एक बात बताओ...आखिर क्यों मुझे इस कदर अपने ही हक़ के लिये लड़ाई लड़नी होती है? ये समाज मुझे स्त्री का दर्जा देकर क्यों कमजोर करता रहता है? वो देश जहां सब देवी की पूजा करते हैं, उसके पूजन में सड़कों पर उतर आते हैं। वो देवी हैं भी या नहीं? मैं नहीं जानती। लेकिन आप मुझे देख सकते हैं, सुन सकते हैं फिर भी मेरे साथ नहीं खड़े होते, क्यों? क्यों ये सरकार जो बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का नारा देती है वो सुरक्षा की इस भद्दी व्यवस्था पर चुप है? सुनो, मैं एक इंसान हूँ उसके बाद औरत, लड़की इत्यादि हूँ। 

मैं अगर आवाज़ उठाती हूँ, बोलती हूँ तो मेरी शिक्षा परवरिश पर तंज कसे जाते हैं। कोई तंग करे मुझपर और मैं चिल्ला दूँ तो  मेरे पहनावे पर सवाल खड़े हो जाते हैं। बी.एच.यू. में जो भी कुछ हो रहा है वो बहुत ही ज़्यादा शर्मनाक और निंदनीय है। बाहर तो छोड़िये, मैं हॉस्टल या घर में भी सुरक्षित नहीं हूँ। कानून जो हमारी सुरक्षा, रक्षा का दावा करता है उससे कुछ भी मैं कहती हूँ तो वो हम पर ही ऊँगली उठाता है। मेरा सच मरता नज़र आ रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे मैं हार रही हूँ। 

इस पुरे मामले में मेरी गलती बस इतनी है कि मैं सड़कों पर सैलाब लेकर उतर आई। मेरे साथ खड़े हज़ारों लोग मेरी गलती हैं। मैं अपनी सुरक्षा की मांग कर रही हूँ ये गलत है। मुझे तो ज़ुल्म सहने के लिए बनाया गया है न। मैं मुँह खोल रही हूँ तो वो आँखे दिखा रहे हैं। अपना रास्ता बदल रहे हैं। मूझे मोहरा बनाकर वोटबैंक की राजनीति की जाती है। वो सही लगता है आपको। मुझे बस में छूने के बहाने धक्का दिया जाता है। हर जगह जहाँ भी नज़र जाये मुझे घूरते लोग, जब तक कुछ हो न जाये तब तक कोई कुछ नही बोलेगा और न ही करेगा। मेरी समझ नहीं आता कि  आखिर क्या सच में ये इतनी बड़ी बात है? मुझे बेवकूफ़ बनाना इतना आसान क्यों लगता है तुम्हें? ये कहते हैं, औरत आदमी सब बराबर फिर जब भी कोई मनचला मुझे तंग करता है या मेरा रेप कर देता है तब ये समाज मुझे ही क्यों दुत्कारता है। अरे भाई इज्ज़त तो उसने बेची है अपनी,  मेरे साथ कुकर्म करके फिर मेरे सर पर इज़्ज़त का भार क्यों मढ़ा जाता है? लड़कों को वंशज वारिस बना लो लेकिन कल को बिटिया के साथ कुछ हो जाये तो इज़्ज़त को खाक करने वाली बिटिया ही होती है। 

मैं एक इंसान हूँ औरत-आदमी कमज़ोर-कठोर आदि तो सोच ने बनाया है। बेटी पढ़ रही है पर हर कदम पर उसकी तौहीन हो रही है। कैंपस में हुई हिंसा पर सबकी नजर गयी लेकिन उस लड़की के साथ हुए दुर्व्यवहार के ऊपर कोई नहीं बोल रहा है। सच, सही में बहुत कड़वा होता है। तब ही तो यहां लाठीचार्ज हो जाता है। तमाम धाराओं के तहत सच को ही दबाया जाता है और तब भी बात न बने तो गोली मार दो सबको। एक दिन, दो दिन लोग बोलेंगे फिर अपने आप ही भूल जाएंगे। बुरा लगता है कि सरकार के पास लड़के-लड़कियों के साथ घूमने पर नज़र रखने के लिए एंटी रोमियो स्क्वाड जैसा मज़ाक करने की फुर्सत है लेकिन उनकी सुरक्षा के इंतजाम के लिए वक्त नहीं। डर है कि कहीं ये सब इस हद तक न बढ़ जाये की हमें इन मुद्दों की आदत हो जाये। 

कार्टून प्रीति गौतम 
हम सब देखकर-सुनकर अंजान बनकर और मूक-बधिर होकर खड़े रहते हैं। हम लड़ना नहीं चाहते। सवाल नहीं करना चाहते। सोचते हैं! होना कुछ नहीं है। लेकिन एक तबियत से की गयी कोशिश भी कुछ बेहतर परिणाम का कारण बन सकती है।

ग़लत-ग़लत है लेकिन उस ग़लत का समर्थन करने के चक्कर में, उसे बचाने की कोशिश में रोज़ हज़ारों सच कहीं दब जाते हैं या फ़िर मर जाते हैं। 
1 अक्तूबर को  दैनिक जागरण मे प्रकाशित 

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