Tuesday, 10 October 2017

पत्रकारिता का धुंधलाता अस्तित्व

अर्शियान

लोकतंत्र का सबसे सशक्त माध्यम माना जाने वाला पत्रकारिता का स्तम्भ आज अपनी अस्मिता खोता नज़र आ रहा है। आज पत्रकारिता खासतौर पर टीवी पत्रकारिता एक तरह से स्टूडियो की चार दीवारी तक  ही सीमित रह गयी है। कोई भी पत्रकार ज़मीन पर उतरकर पत्रकारिता करना ही नहीं चाहता है, ग्राउंड रिपोर्टिंग का अस्तित्व भी लगभग ख़त्म होता जा रहा है।
आज टीवी पत्रकारिता ने एक तरह से हमारी सोचने की  क्षमता को सीमित  कर दिया है वो हमें वही सामग्री दिखाते हैं, जो वे चाहते हैं। पत्रकार का कर्त्तव्य  है कि वह आम जनता को सत्य और निष्पक्ष सूचना से रुबरू कराए न कि तोड़-मरोड़कर। लेकिन वर्तमान में यह नियम प्रतिबंधित सा प्रतीत होता है। पत्रकारिता ने अपनी पहचान चाटुकारिता में तब्दील कर ली है। पत्रकारों की स्थिति ऐसी हो गयी है की यदि आप निष्पक्ष,ईमानदार और सच बोलने के आदी हैं तो मीडिया हाउस में आपके लिए कोई स्थान नहीं है।
वर्तमान के पत्रकारिता संस्थान जिन्हे हम पत्रकारिता की कोख का दर्जा देते हैं, वही  हमें यह सिखाते हैं कि खबर को बनाकर लिखो,खबर कम, मनोरंजन ज़्यादा मतलब इंफोटेनमेंट। यदि कोख की परवरिश ऐसी होगी तो आने वाले भविष्य में पत्रकारिता के हालात बत से बदत्तर होते समय नही लगेगा।
स्वतंत्रतायोत्तर पत्रकारिता का सन्दर्भ व्यापक होना चाहिए थे। किन्तु इसका  उल्टा  होता नज़र आ रहा है। हम  नवें दशक के अंत में हिंदी पत्रकारिता पर नज़र डालें तो उस समय हिंदी पत्रकारिता खुलकर सवर्णोन्नमुख जाति विद्वेष से भरी सांप्रदायिक पत्रकारिता कर रही थी। उस पर ऐसे निराधार नहीं है। अखबारों से  सच्ची सूचना प्राप्त करना जनता का लोकतान्त्रिक अधिकार है। अख़बार स्वयं  लोकतंत्र  का वकील है किन्तु जब अख़बार स्वयं धर्म-जाति तक सीमित हो जाता है तो उसके चरित्र पर संदेह होने लगता है।
उदाहरण के तौर पर कथित 'रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद'के मामले में आप उत्तर-प्रदेश और बिहार के कुछ अखबारों की भूमिका देख सकते हैं कि वह किस प्रकार से इस मसले पर लोगों को एक होकर फैसला लेने के लिए प्रेरित नही कर रहे है बजाए की हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। यहाँ तक की अक्सर धार्मिक मुद्दों को मोहरा बनाकर ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने की तमाम कोशिशें आजकल मीडिया का पेशा बन गया है।  2014  के लोकसभा चुनाव में मीडिया की भूमिका से कौन अंजान रहा है।एक सवाल-  पत्रकारिता आम जनता के हक़ के लिए है या फिर उदयिगपतिओं, राजीतिज्ञों की खुशामद करने के लिए?
पत्रकारिता की इन सभी बुराईओं की सबसे बड़ी वजह ही उद्योगपतियों और राजनैतिक पार्टियों का मीडिया घरानों में निवेश है। कारणवश उसकी टूटी हुई कमर और आये दिन पत्रकारों पर हमला बेहद शर्मनाक और निंदनीय है।

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