Thursday, 12 October 2017

सरदार सरोवर बांध विवाद


विशाल जोशी 
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के जन्मदिन पर सरदार सरोवर बांध के 30 दरवाजे खोले गए। दूसरी ओर बांध के डूबने वाले क्षेत्र में बसे गांव के लोग इस परियोजना और सरकार के खिलाफ थे और जल सत्याग्रह जैसे आंदोलन से विरोध प्रकट कर रहे थे। क्या लोग विकास नहीं चाहते थे? विकास तो दूर सवाल ये है की जब यह बांध 2006 में तैयार हो चुका था फिर इसे को अब तक क्यों नहीं खोला गया?

इस सब कि शुरुआत 1946 में हुई जब सेंट्रल वाटरवेज़, सिंचाई विभाग ने एक कमिटी बनाई। कमिटी का गठन इसलिए किया गया था ताकि पता लगाया जा सके कि ये परियोजना कितनी लाभदायक, कारगर और जनकल्याणकारी साबित होगी। 15 साल बाद 1961 में पंडित नेहरू ने इस परियोजना की नींव रखी। नर्मदा नदी पर परियोजना के तहत 30 बांध बनने थे, जिनका उद्देश्य गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों में सिंचाई के लिए पानी पहुंचाना, मध्य प्रदेश को बिजली देना, राजस्थान पानी देना तथा नगरीय इलाकों में पीने का पानी पहुंचाना। इन सभी बांधो में से सबसे बड़ी परियोजना "सरदार सरोवर परियोजना" थी जिसकी कुल ऊंचाई 138.68 मीटर एवं लंबाई 1210 मीटर है तथा इसमें 86.2 लाख क्यूबिक मीटर कंक्रीट प्रयोग किया गया। ऐसा अनुमान लगाया गया है इतने कंक्रीट से पृथ्वी से चांद तक सड़क बन सकती है।

आगे चलकर नर्मदा नदी के पानी के लिए गुजरात, महाराष्ट्र और मधयप्रदेश में विवाद हो गया जिसको सुलझाने के लिए 1969 में "नर्मदा डिस्प्यूट्स ट्रिब्युनल"(NDT) का गठन किया गया। तत्कालीन उच्चतम न्यायालय न्यायधीश वी. रामास्वामी इसके अध्यक्ष थे। जल विवाद के अलावा NDT का मुख्य उद्देश्य बांध के कारण विस्थापित लोगों का पुनर्वास भी था। गुजरात सरकार को हिदायत दी गई कि जिन लोगों की ज़मीन डूबने वाले क्षेत्र में आ रही है उन सभी को कहीं और ज़मीन दी जाए मगर अधिकतर लोग पुस्तैनी जमीनों पर रहते थे और उन के पास ज़मीन के कागजात नहीं थे तो उन सभी को जमीन नहीं मिली। आज भी वे लोग उसी क्षेत्र में बसे हुए हैं।

चूंकि NDT में न कोई समाजिक विज्ञानी था, न कोई मानव विज्ञानी था और ना ही कोई पर्यावरण विज्ञानी था तो इस प्रोजेक्ट को 1978 में क्लीन चिट मिल गई। क्लीन चिट मिलने के बाद विश्व बैंक ने प्रोजेक्ट का 10 फीसद यानी 250 मिलियन डॉलर परियोजना में देना मंजूर कर दिया। विश्व बैंक किसी भी परियोजना में पैसा लगाने से पहले जांच करता है कि इस परियोजना से किसी प्रकार की मानव क्षति, पर्यावरण हनन या भविष्य में किसी प्रकार का जनविरोध न हो। तब ही विश्व बैंक निवेश करता है पर इस बार NDT की रिपोर्ट पर भरोसा कर विश्व बैंक ने पैसे देना मंजूर कर लिया। 1980 के बाद बांध के विरोध में उठ रही आवाज़ों ने विकराल रूप ले लिया। 1989 में आंदोलन को स्थिर नाम मिला "नर्मदा बचाओ आंदोलन" जिसकी अगुआई बाबा आपटे और मेधा पाटेकर ने की। इस विवाद के चलते विश्व बैंक को अपने फैसले के बारे में फिर से सोचना पड़ा और 1991 में एक स्वतंत्र कमिशन भारत भेजा जिसका नाम मोर्श कमिशन था। इस कमिश्न ने 357 पृष्ठों की एक रिपोर्ट तैयार की जिससे साफ होता है कि ये परियोजना मानवाधिकार का हनन करती है। इस रिपोर्ट के बाद अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व बैंक की कड़ी आलोचना हुए और अंततः विश्व बैंक ने 1993 में परियोजना से हाथ खींच लिए। इसके बावजूद गुजरात सरकार ने अपना काम जारी रखा।

31 दिसंबर 2006 को तत्कालीन मुख्मंत्री श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने इस बांध का उद्घाटन किया तथा इसे 17 मीटर और ऊंचा करने का आदेश दिया। जिससे इसकी ऊंचाई 125.92 मीटर से 138.68 मीटर हो गई।पूरी घटना से ये तो साफ है कि यह परियोजना जनकल्याणकारी न होकर जनविनाशकारी थी। तो सवाल ये है कि  ये बांध बनाया ही क्यों गया? बांध के लाभ गिनाते वक़्त कहा गया था कि इस बांध के जरिए गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों तक सिंचाई के लिए पानी पहुंचाया जाएगा। मगर गुजरात के मुख्यमंत्री का कहना है कि अभी तक नेहरों का निर्माण हुआ ही नही है।इस बांध का लाभ पेय-पदार्थ बनाने वाले उद्योगपति उठा रहे हैं।


अंत में  बात ये उठती है की आपने 3 लाख से ज्यादा लोगों को बेघर कर दिया तथा 37000 हेक्टेयर उपजाऊ जमीन पानी तले चली गई। क्या 47000 करोड़ खर्च करके इस बांध को बनाने की आवश्यकता भी थी जबकि इतनी ही लागत और आनी है? अंत में सरकार के लिए यही प्रश्न है कि एक तरफ तो लोग जल सत्याग्रह में अपनी मौत के दरवाजे पर खड़े है वहीं दूसरी ओर हमारे जनप्रिय होगये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने जन्मदिन का उत्सव मना रहे थे क्या ये एक देश के सर्वोच्च व्यक्ति को शोभा देता है?

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