Thursday, 8 February 2018

ग्रामीण महिलाओं की स्वतन्त्रता के सवाल

आशुतोष मिश्रा

आजादी के सातवें दशक में हम प्रवेश कर चुके हैं। हमारे सामने ये सवाल फिर भी बरकार है कि जिस स्वतंत्र देश में हमारी आधी से भी कम आबादी यानी महिलाएं, खासकर ग्रामीण महिलाएं कितनी स्वतंत्र हैं? यह सवाल इसलिए भी लाजमी है क्योंकि कहीं ना कहीं ग्रामीण औरतों की आवाज हम तक पहुंच नहीं पाती है। शहरी क्षेत्रों की औरतों के मुकाबले वे हर मायने में  असुरक्षित जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।

हमारे समाज में महिला जन्म से लेकर मृत्यु तक एक अहम और संघर्षशील किरदार निभाती है ।अपनी सभी भूमिकाओं में निपुणता दर्शाने के बावजूद आज के आधुनिक युग में महिलाओं को पुरुषों के बराबर उठने बैठने लायक नहीं समझा जाता है। शहरी क्षेत्रों में तो फिर भी हालात इतने खराब नहीं है पर ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की स्थिति चिंताजनक है

गांव की बेटियों को पढ़ने की आजादी की बात छोड़िए वो तो सर उठाकर कहीं घूम भी नहीं सकतीं। उन्हें एक बंद दरवाजे के भीतर रखा जाता है कि कहीं उनकी सौंदर्य को कोई देख ना ले,कहीं उनका कौमार्य भंग हो जाए। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के प्रचार-प्रसार का अभाव है जिससे महिलाओं को लेकर तरह-तरह की कुरीतियों का बोलबाला है।लड़कियों को  प्राथमिक शिक्षा से दूर कर दिया जाता है। यह कहकर कि पढ़-लिख कर क्या करना है, आखिर तुझे  किसी और घर जाकर वहां गृहस्थी की देख-रेख करनी है।

जिस देश में लगभग तीन चौथाई आबादी गांव में बसी हो और कृषि ही अर्थव्यवस्था का आधार हो उस देश में ग्रामीण विकास के बिना हम कैसे कल्पना कर सकते हैं कि वहां की औरतें पुरुषों के बराबर खड़ी हो सकती हैं। जहां पुरुष ही दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है, तो औरतें किस प्रकार से उस समाज में  संघर्ष कर जीवित रह पाएंगी? बाल विवाह, दहेज उत्पीड़न और बलात्कार से जकड़ी ग्रामीण महिलाएं कैसे अपनी आवाज बुलंद करेंगीं? ऐसी सैकड़ों हजारों लड़कियों के साथ हो रहे बलात्कार को यह कहकर दबा दिया जाता है कि इससे हमारे समाज की बदनामी होगी। गांव की लड़कियों को तो यह जानने का भी अधिकार नहीं होता की उसकी शादी कहां हो रही है, किसके साथ हो रही है, उसका पति क्या करता है,इत्यादि। 

परिवार नियोजन, दहेज प्रथा इन दोनों ही मैं भ्रूण हत्या का सबसे बड़ा कारण मानता हूं।  परिवार नियोजन की योजनाएं औरतों के खिलाफ खड़ी नजर आती हैं और  हर परिवार में अनिवार्य रूप  से एक पुत्राधिकारी बनने  की होड़ दिखाई पड़ती है । बेटों को प्राथमिकता मिलना और बेटियों का गर्भ में ही गला घोट देना। आप सोचते होंगे शिक्षा,जागरूकता,साधन और स्वास्थ्य सेवाओं में अभूतपूर्व वृद्धि तो हुई थी,  फिर लड़कियों की जनसंख्या लगातार कम क्यों होती चली गई? दरअसल निरोध, गोलियां और गर्भपात के कानूनी अधिकार देने का मुख्य उद्देशय औरत के कोख पर नियंत्रण करके राष्ट्र की जनसंख्या पर नियंत्रण करना भी था और स्त्री को पुरुष के 'आनंद की वस्तु' बनाना भी।  नसबंदी  दोनों के लिए समान रूप से थी लेकिन  आज भी नसबंदी के लिए सिर्फ महिलाओं को क्यों खड़ा कर दिया जाता है?

दहेज प्रथा ने  सबसे ज्यादा गांव को प्रभावित किया है। अक्सर भ्रूण हत्या के लिए वहां के नागरिक दहेज प्रथा को ही जिम्मेदार मानते हैं। गांव में कौमार्य बचाए रखने के लिए स्त्री घर में कैद होकर रहे या घर से बाहर शिक्षा ग्रहण करने की कामना हो तो निरंतर बलात्कार, हत्या  का भय झेलती रहे। यही कारण  माता-पिता को  अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा देने में असक्षम बनाते हैें।  
एक लड़की का शारीरिक बलात्कार सिर्फ एक बार होता है किंतु  हमारा यह समाज उस लड़की का मानसिक शोषण न जाने कितनी बार करता है क्योंकि हमारी मानसिकता इतनी नीचे गिर चुकी होती है कि हम लड़की को दोषी ठहराते हैं  पहनावे से लेकर आचरण तक पर टीका- टिप्पणी करने से नहीं चूकते। 

समझ नहीं आता  ये कैसे और क्यों हो रहा है?कौन इसका सूत्रधार हेै? देखता, सुनता कुछ है, अर्थ कुछ और। बराबरी के  मौलिक अधिकार का मतलब बताया जाता है फिर भी उत्तराधिकारी के लिए सिर्फ बेटा चाहिए बेटी नहीं। अगर गाँव की स्त्रियां घर मे हो रहे अत्याचार के खिलाफ विद्रोह करे तो कहा जाता है  तुम्हे घर का सुख-स्वर्ग चाहिये या बेघर होने की सजा, फैसला खुद कर लो -  क्या यही है चुनाव का अधिकार और निर्णय लेने की आजादी? अधिकारों की बात होती है, समानता की बात होती है। तमाम कानून हैं और बनते भी हैं  लेकिन सुनता-मानता कौन है। अदालती आदेश और विधि आयोग के संशोधन सुझाव का यही परिणाम होता है?

भ्रूण हत्या से लेकर सती को खिलाफ बनाए जाने वाले  प्रायः सभी कानून महिला कल्याण के नाम पर सिर्फ उदारवादी- सुधारवादी मेकअप करते  दिखाई देते हैं। मौजूदा संविधान कानून महिलाओं को कानूनी सुरक्षा कम देते हैं।  आतंकित, भयभीत और पीड़ित अधिक करते हैं। निसंदेह औरत को उत्पीड़ित करने  की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक प्रक्रिया में पूंजीवादी समाज कानून को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है इसलिए मेरे अनुसार  (LAW)का असली अर्थ  है - लॉ अगेंस्ट वुमेन ।

कुल मिलाकर हमारे देश, समाज तथा परिवार में तब तक लैंगिक समानता और नारीवादी विचारधारा का सामवेश नही हो सकता जब तक हमारी मानसिकता में परिवर्तन नहीं होगा। आज जरूरत है लोगों को जागरूक करने की। बेटी को खत्म कर और बेटे को जन्म देना ,बेटे को दूध बेटी को दुत्कारना, बेटे को स्कूल भेजना और बेटी को घऱ के काम काज के आडम्बर में झोंकना। आज इन दो रंगीन नीतियों को बदलना होगा। उजाले की हकदार बेटियां भी हैं । इस तरह का भेदभाव कर हम अपने ही नजरो में गिर रहे हैं। अतः हम सभी भारतवासियों से आग्रह करते हैं इस तरह के विचारों को अपने समाज मे पनपने न दें।अब तो  विज्ञान भी मानता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ अच्छा नहीं है। प्रकृति में संतुलन जरूरी है,जब प्रकृति ही इस भेदभाव के खिलाफ है तो हम क्यों नहीं?

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