प्रो आनंद कुमार
जार्ज फर्नांडीज के निधन से गैरकांग्रेसवाद की राजनीति के अंतिम समाजवादी महानायक का भारतीय सार्वजनिक जीवन से प्रस्थान हुआ है. राजनीतिक साहस, संगठन-क्षमता, और वक्तृता में बेजोड़ होने के कारण वह समाजवादियों में सर्वाधिक करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी थे. संगठित और असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत मजदूरों के अनूठे संगठनकर्ता और १९६४ से २०१४ के बीच के पांच दशकों तक की उथल-पुथल वाली संसदीय राजनीति के बहुचर्चित शिखरपुरूष जार्ज फर्नांडीज की कई पहचान थी और उनकी विविधतापूर्ण राजनीतिक जीवन यात्रा में विजय – पराजय, यश – अपयश, प्रशंसा और निंदा की भरपूर बारंबारता रही. लेकिन स्वाधीन भारत के इस अनूठे राजनीतिज्ञ के लम्बे और बहुचर्चित सार्वजनिक जीवन के मूल्यांकन में उनकी पांच भूमिकाओं को बार-बार याद किया जायेगा – १. साठ के दशक में कांग्रेस शासन के प्रति उपजे असंतोष के फलस्वरूप पहली बार ‘बम्बई बंद’ और फिर १९७४ में पूरे देश में लम्बी रेल हड़ताल का आयोजन, २. १९७५-७७ के आपातकाल में लोकतंत्र की रक्षा के लिए भूमिगत रहकर किये गए साहसिक कार्य जिसके लिए इंदिरा सरकार द्वारा गिरफ़्तारी करके बहुचर्चित मुक़दमा चलाया गया, ३. तिब्बत, बांगलादेश, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका और म्यांमार समेत दुनियाभर के लोकतांत्रिक आन्दोलनों की प्रभावशाली सहायता, ४. जनता पार्टी के उद्योगमंत्री के रूप में कोका-कोला और आई.बी.एम्. को भारत से बाहर करना और वैश्विक पूंजीवाद के विरुद्ध किये जानेवाले प्रयासों से लगातार एकजुटता, और ५. राष्ट्रीय राजनीति में हरेक गैर-कांग्रेसी मोर्चे के निर्माण और विसर्जन दोनों में निर्णायक हिस्सेदारी.
बहुतों के लिए यह अजूबा सच होगा की स्वधिनोत्तर भारत के अत्यंत तेजस्वी समाजवादी नेता के रुमे जाने गए और ३जून १९३० को मंगलोर में माता एलिस और पिता जान जोसफ फर्नांडीज के की पहली संतान के रूप में जन्मे जार्ज तरुणावस्था में धर्म प्रचारक का प्रशिक्षण पाने के लिए बंगलुरु कई एक सेमिनरी में भेजे गए थे. लेकिन २ बरस में ही उनका मन चर्च-प्रशिक्षण के वातावरण में निहित विडम्बनाओं से उचट गया और तमाम कठिनाइयों के बावजूद शोषणग्रस्त कारखाना मजदूरों की समस्याओं के लिए बम्बई में कार्यरत मजदूर नेता डिमेलो के मार्गदर्शन में काम करना उनको जादा पसंद आया. और मुम्बई के मजदूरों के संगठन कार्य से भारतीय समाजवादी आन्दोलन में अपनी आकर्षक पहचान बनानेवाले जार्ज फर्नांडीज ने डा. राममनोहर लोहिया और मधु लिमये के मार्गदर्शन में राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभरे. लेकिन गैरकांग्रेसवाद की लहर में १९६७ के आम चुनाव में कांग्रेस के कद्दावर नेता एस. के. पाटिल को दक्षिण बम्बई से पराजित करके देश की लोकसभा में पहुंचने के पहले ही बम्बई महानगर निगम के समाजवादी सदस्य के रूप में उनकी एक जुझारू युवा जननायक की छबि बन चुकी थी. हिन्द मजदूर किसान पंचायत वर्ग-संगठनों के लिए उनके द्वारा संवर्धित संस्था थी जिसने उन्हें देशभर के समाजवादियों का नायक बनाने में बुनियाद का काम किया. इसीलिए १९६९ में ही संयुक्त सोसलिस्ट पार्टी के महामंत्री और १९७३ में सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. १९७४ में अखिल भारतीय रेलवे मजदूर फेडेरशन के अध्यक्ष बनकर रेलवे कर्मचारिओं को भारतीय मजदूर आन्दोलन का सर्वाधिक जुझारू चेहरा बनाया.
हिंदी और अंग्रेजी के साथ ही कोंकणी, कन्नड़, मराठी, तुलु, तमिल और लैटिन जैसी आठ भाषाओँ के जानकार जार्ज फर्नांडीज नौ बार लोकसभा और एक बार राज्यसभा के सदस्य चुने गए थे. १९७७ और २००४ के बीच की गैर-कांग्रेसी सरकारों में उन्होंने भारत सरकार में उद्योग मंत्री, रेलमंत्री, संचारमंत्री, और रक्षामंत्री की जिम्मेदारियां भी संभाली. इस दौरान उनका समाजवादी दायरे के बाहर के कई राष्ट्रीय नेताओं विशेषकर मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जगजीवन राम, देवीलाल, ज्योतिबसु, रामाराव, फारुक अब्दुल्ला, चन्द्र शेखर, विश्वनाथप्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी से नजदीकी रिश्ते भी बने. अटलबिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री चुननेवाले राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक मोर्चे के तो वह संयोजक भी थे.
वस्तुत: अपने घुमावदार राजनीतिक जीवन में जार्ज फर्नांडीज ने वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की नेहरुकालीन गोलबंदी की बजाय कांग्रेस बनाम गैरकांग्रेस की लोहिया-निर्मित घेरेबंदी में अपनी ऊर्जा लगायी. इसीलिए वह राष्ट्रीय सरोकार के मुद्दों को लेकर हर तरह की गैर-कांग्रेसी वैचारिक और आन्दोलनकारी कोशिशों को आजीवन प्रोत्साहित करते रहे. उनकी इस प्रवृत्ति के कारण सबसे उनका सक्रीय सम्वाद का रिश्ता था. इसमें उनके द्वारा प्रकशित ‘प्रतिपक्ष’ और ‘अदर साइड’ (अंग्रेज़ी) का कम योगदान नहीं था. लेकिन उनके वैचारिक खुलेपन का कभी कभी आत्मघातक परिणाम भी निकला. मोरारजी देसाई सरकार के बारे में उनके अंतर्विरोधी भाषण, वाजपेयी सरकार के मंत्री के रूप में गुजरात नर-संहार का विश्लेषण, मंडलवादी राजनीति के नायकों से उनकी निकटता और फिर दूरी, और अपने ही बनाये संगठनों से उनका निष्कासन जैसे तथ्यों ने उनकी राजनीतिक दिशा को लेकर एक धुंधलापन पैदा किया और अपने अंतिम बरसों की गंभीर अस्वस्थता ने उन्हें विवादों और अंतर्विरोधों से बाहर निकल आने का अवसर नहीं दिया. उनके कथनी और करनी में अक्सर जोखिम की राजनीति की संभावना दीखती थी. लेकिन उनकी समाजवादी बुनियाद पर १९८० के बाद के काल में जादातर संसदवादी मजबूरियों का दबाव बना रहा. इसलिए यह दु:खद है की संसदीय राजनीति में सफलता के शिखर तक कई बार पहुँचने के बावजूद अपार लोकप्रियता से शुरू उनकी राष्ट्रीय राजनीतिक यात्रा का समापन नितांत अकेलेपन में हुआ. फिर भी भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक-आर्थिक न्याय के मोर्चों पर उनकी बहादुरी को देश नहीं भूलेगा।
आचार्य कृपलानी, लोकनायक जयप्रकाश और डॉ मनोहर लोहिया द्वारा निर्मित तिब्बत समर्थन धारा को जार्ज फ़र्नाडिज ने सर्वाधिक बल प्रदान किया। १९५९ में बम्बई में तिब्बत पर चीनी क़ब्ज़े के विरोध से शुरू उनका तिब्बत समर्थन जीवन के अंतिम दिनों तक प्रबलतर होता गया। १९६७ में संसद सदस्य चुने जाने के बाद उन्होंने लोडी ग्यरी के साथ मिलकर तिब्बत के सवाल को लगातार महत्त्व दिया। प्रत्येक वर्ष १० मार्च को होने वाले तिब्बत दिवस के कार्यक्रमों से लेकर बीजिंग ओलम्पिक के ख़िलाफ़ जंतर मंतर की विशाल रैली तक हमें उनका नेतृत्व मिला। वह अंतरराष्ट्रीय तिब्बत समर्थक मंच के प्रणेता और समर्थक थे। उनका सांसद आवास और उनसे जुड़े अनेकों संगठन तिब्बती मुक्ति साधना केलिए शक्ति स्रोत थे।
आचार्य कृपलानी, लोकनायक जयप्रकाश और डॉ मनोहर लोहिया द्वारा निर्मित तिब्बत समर्थन धारा को जार्ज फ़र्नाडिज ने सर्वाधिक बल प्रदान किया। १९५९ में बम्बई में तिब्बत पर चीनी क़ब्ज़े के विरोध से शुरू उनका तिब्बत समर्थन जीवन के अंतिम दिनों तक प्रबलतर होता गया। १९६७ में संसद सदस्य चुने जाने के बाद उन्होंने लोडी ग्यरी के साथ मिलकर तिब्बत के सवाल को लगातार महत्त्व दिया। प्रत्येक वर्ष १० मार्च को होने वाले तिब्बत दिवस के कार्यक्रमों से लेकर बीजिंग ओलम्पिक के ख़िलाफ़ जंतर मंतर की विशाल रैली तक हमें उनका नेतृत्व मिला। वह अंतरराष्ट्रीय तिब्बत समर्थक मंच के प्रणेता और समर्थक थे। उनका सांसद आवास और उनसे जुड़े अनेकों संगठन तिब्बती मुक्ति साधना केलिए शक्ति स्रोत थे।
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