मुझे 8 वर्ष की आयु में संघ कार्य प्राप्त हो गया था। संतोष है, कि तब से बिना किसी भी विराम के यानी सतत मैंने अपने दायित्वों को निभाने का प्रयत्न किया है। संघ ने मुझे जीवन जीने के आदर्श, उन पर चलने का माध्यम, वैसे सहयात्रियों का सत्संग और अनुकूल परिवेश दिया है। यह कार्य मेरे स्वभाव के अनुकूल है, मुझे माँ-पिताजी से प्राप्त होने के कारण सहज कर्म है। यही करना मेरा स्वधर्म हैं। यही मेरे लिए मोक्ष मार्ग है।
जीवन यापन के लिए मुझे वकालत प्राप्त हुई। 4 दशक से ज्यादा इसका अभ्यास हो गया है। इसमें यथेष्ट, सच कहूं तो आशातीत सफलता मिली है। साथ ही यह भी सच है कि भारत की वर्तमान न्याय व्यवस्था, सभी तरहां यानी अपने (i) वेश में (ii) भाषा में (iii) प्रक्रिया में और (iv) सिद्धांतों में; पूरी तरहां विदेशी है। इसमें मेरा पर्याप्त समय खर्च होता है।
मेरे मन में प्रश्न उठता है कि क्या इस वकालत में धंसे रह कर, इस जीवन में भारत के 'स्व' का साक्षात्कार करना सम्भव है या वकालत 'स्व' की यात्रा को बाधित करती है। संघ मुझे मेरे माँ-पिता से मिला। मेरी पत्नी हिंदुत्व के मार्ग में चलने में सच्ची सहधर्मिणी है। बच्चे भी अनुकूल है। इन सब की अनुकूलता से ही मुझे स्वधर्म निभाने की एकाग्रता प्राप्त होती है।
मुझे अभी हाल में विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष का दायित्व मिला है। मुझे इसके योग्य होने का प्रयत्न करना है।
अब तक की वकालत भी - 'भगवान् ही योगक्षेम वहन कर रहे है' के भाव से की है आगे का समय 'निर्योगक्षेम' होने से चलेगा। मेरे दोनों बच्चे मेरे योगक्षेम के लिए उत्सुक है। मेरा परिवार मेरे वकालत छोड़ देने के निर्णय से सहमत है, इसमें सहायक है। बचपन से गीता का अभ्यास किया है। आपातकाल में जेल में रहने के सुअवसर का उपयोग कर मैंने उसे कंठस्थ कर लिया था। गीता माँ मेरे नित्य अभ्यास में भी है।
यह सब सोच कर मैंने निर्णय किया है कि 1 अप्रैल 2024 से अब नए मुक़दमे नहीं लूंगा। पहले से चले आ रहे काम को तो पूरा करना ही होगा। और यह निर्णय व्यापक जन-हित के विषयों पर लागु नहीं है - क्योंकि वह भी मेरे संघ - कार्य का हिस्सा ही है।
भगवान से प्रार्थना है कि जीवन का शेष समय विश्व हिन्दू परिषद के पवित्र कार्य में, गीता के अनुसार जीवन जीने और राम काज को बिना विश्राम के करने में लगा सकूँ। मुझे विश्वास है कि इसमें आप सबके आशीर्वाद और सहयोग प्राप्त होगा।
(आलोक जी के ट्विटर से सभार)
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