Tuesday, 25 June 2024

आज के समय में यदि तानाशाही तो आपातकाल क्या था ?

करुणानयन 


मौका था 18 वीं लोकसभा के पहले सत्र के पहले दिन सरकार के मंत्रिमंडल के सांसदों का  लोकसभा के सदस्य के रूप में शपथ ग्रहण का। इस समय एक और दृश्य ने पुरे भारतवासियों को अपने तरफ़ आकर्षित किया। वह था, विपक्षी गठबंधन का भारतीय संविधान की प्रति अपने हाथों में लेकर सदन में पहुंचना


इसकी अगुवाई करने में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव, डिंपल यादव और तमाम बड़े विपक्षी नेता थे। जो कि मीडिया को दुहाई देते दिखे की वह भारतीय संविधान की अस्मिता की रक्षा करेंगे। सत्ता पक्ष यदि निरंकुश हो जाए तो यकीनन विपक्ष को एकजुट होकर ऐसी सत्ता का बहिष्कार करना चाहिए। पंरतु वर्तमान समय में जिस स्थिति की आशंका विपक्षी दल देश की जनता को दिखा रहें हैं क्या ऐसा वाकई में है ? क्या सही में भारतीय संविधान को मोदी सरकार से खतरा है? इस खतरे से निपटने के लिए रास्ता कौन दिखा रहा है? 

 

दरअसल जब कांग्रेस मोदी सरकार को यह नसीहत देते दिखाई देती है कि आपके शासन से संविधान खतरे में है तो यह  केवल हास्यास्पद स्थिति पैदा करता है। क्योंकि वह पार्टी संविधान के खतरे को देश के सामने न ही उजागर करे। जिसने आपातकाल को भारतीय जनता पर जबरदस्ती थोपने का काम किया था। जिसने अपने राजनीतिक महत्वकांक्षा के लिए संविधान में आपातकाल के समय तमाम ऐसे संशोधन किये जो उसकी मूल भावना के विरुद्ध थे। 


जिस मोदी सरकार को आंदोलनकारियों के दमन के लिए महिमामंडित किया जा रहा है। वह यह क्यों भूल जा  हैं कि कैसे उनके पूर्वजों ने अपने राजनीतिक रसूख को बचाने के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को रौंद दिया था। कैसे पुलिस जबरदस्ती लोगों को सलाखों के पीछे डाल दे रही थी ? किस प्रकार की यातनाएं लोगों को दी गईं थीं। जनसंख्या वृद्धि को रोकने के नाम पर संजय गांधी ने जो नसबंदी ऑपरेशन का अभियान चलाया उसको कैसे भूला जा सकता है। इस अभियान से तो कोई धर्म ,जाति ,संप्रदाय अछूता नहीं था।


आज के वर्तमान दौर में तमाम रिपोर्ट साझा कर दिए जाते हैं कि भारतीय मीडिया की रैंकिंग में गिरावट दर्ज़ की जा रही है। 2014 के बाद से एक नया मीडिया तंत्र गोदी मीडिया के नाम से काम कर रहा है। एक ख़ास वर्ग के पत्रकारों द्वारा काफ़ी मुख्यधारा की मीडिया का विरोध किया जाता है। उस वर्ग के लोग यह दावा करते हैं कि उनकी आवाज़ को इस समय दबाया जा रहा है। लेकिन आज के तमाम सोशल मीडिया माध्यमों से वह अपनी आवाज़ को बुलंद तो कर ही रहे हैं। इस पर सरकार भी कोई प्रतिबंध नहीं लगा रही है। कुछ लोगों ने तो अपनी अच्छी खासी लोकप्रियता भी हासिल कर लिया है। लेकिन आपातकाल के समय तो सबसे ज्यादा प्रभावित मीडिया ही रहा था। पत्रकारों को जेल में डाला गया। विरोध में उठने वाली आवाज़ों और कलामों को रोक दिया गया। उस विषय पर मुख्यधारा की मीडिया को गोदी मीडिया कहने वाले चुप हो जाते हैं। क्योंकि वह तो अपने को सताया हुए मानते हैं । मोदी सरकार के आने से रोज़गार छीनने वाले बताते हैं। वह मुख्यधारा के हैं नहीं और न ही उन्होनें आपातकाल का दंश झेला। क्योंकि अगर वह इस प्रताड़ना से गुजरे होते तो यह ज़रूर समझ सकते थे कि असल संविधान का हनन और तानाशाही क्या चीज़ है।


ठीक वैसे ही सपा सुप्रीमो माननीय अखिलेश यादव जिस समाजवाद की बात करते हैं वह यह कैसे भूल रहें हैं कि उनके पिता स्वर्गीय मुलायम सिंह को जेल में डाल दिया गया था। समाजवाद की विचारधारा को कैसे जबरन कुचला गया था। तमाम समाजवादी विचारधारा वाले नेताओं को जेल जाना पड़ा था। सबसे ज्यादा समाजवादी लोगों को ही कुचला गया था। तमाम बड़े नेता जोकि समाजवाद के ध्वजवाहक थे उनको रौदने का काम किया गया था।


इसी आपातकाल ने भारतीय राजनीति में समाजवाद और गांधीवादी नेताओं को जन्म दिया। जिसमें मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद आदि ने अपने कार्यकौशल से देश की राजनीति में अति पिछड़ा वर्ग की भूमिका को सुनिश्चित किया। देश का संविधान असल मायनों में उस वक्त खतरे में था। विपक्षी दलों को यह नहीं भूलना चाहिए कि निरंकुशता का विरोध पुरजोर तरीके से उस वक्त भी हुआ था। सरकार को देश की जनता ने उस समय भी सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था। और यदि भविष्य में भी कोई पार्टी इस अहंकार से लबरेज़ होकर सत्ता में आयी तो उसको भी मुंह की खानी पड़ेगी। इस देश के मतदाता किसी को तानाशाह नहीं होने देंगे। 1975 में आपातकाल के बाद हुए आम चुनावों में कांग्रेस के घमंड को चूर-चूर किया था। वहीं 2024 में बीजेपी को भी आइना दिखा दिया गया है। इसलिए विपक्ष देश की जनता को बिना संविधान के खतरे को दिखाते हुए जनता के मुद्दों को सदन में दमदार तरीके से प्रस्तुत करे तो ज्यादा बेहतर होगा।

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